भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर अमेरिकी संसद में बुधवार रात दस बजे बहस होगी। अमेरिकी संसद बहस और वोटिंग पर इस शर्त के साथ तैयार हुई है कि भारत कोई परमाणु परीक्षण नहीं करगा। इस शर्त को न मानने पर परमाणु समझौता खत्म हो जाएगा। परमाणु समझौता खत्म होने के बाद भी भारत को एक प्रमाण पत्र देना होगा कि उसने परीक्षण में अमेरिकी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया है।
पोस्ट इतने गहरे में उतरकर दिखायी देती है कि कई बार भ्रम होता होने लगता है कि सही रास्ते पर उतर भी रहे हैं या नहीं। पोस्ट यदि ऊपर ही दिख सके तो कर दीजिये। अपन तो लगभग लगातर आने वाले ठहरे पर कोई नया पाठक तो एक बारगी चकरा ही जायेगा।
न्यूक्लियर डील पर वामपंथी चिंता यह क्यों होनी चाहिये कि इसके बाद हमको बम फोड़ने की छूट नहीं रहेगी? दोहरे उपयोग वाली न्यूक्लियर तकनीक के लेन-देन में यह सुनिश्चित किया ही जाना चहिये कि इस तकनीक के मिलिटरी उपयोग की गुंजाइश न रहे. परमाणु करार पर ’बम-परीक्षण के अधिकार का हनन’ वाली लाइन पर बहस न सिर्फ़ बेमानी है और भाजपा को ज़्यादा शोभा देती है,बल्कि इस दलील का आधार भी भ्रामक है - इस डील में भारत की बम बनाने की क्षमता घट नहीं रही है बल्कि असल में बढ़ रही है !
यहाँ इसको ठीक से समझने की ज़रुरत है. आयातित यूरेनियम और उन्नत तकनीक बिजली के क्षेत्र में लगने वाली सारी ऊर्जा और संसाधनो के दबाव से भारतीय परमाणु अधिष्ठान को मुक्त कर देगा, सारे परमाणु बिजलीघारों को आयातित ईंधन से चलाया जा सकेगा और तब हमारी सरकारें समूचे घरेलू यूरेनियम और अन्य संसाधनों को बम-निर्माण की सेवा में लगाने के लिये आज़ाद होगी. रही परीक्षण की बात, तो तकनीकी तौर पर किसी भी स्थिति में कोई देश किसी दूसरे देश को परीक्षण से रोक नहीं सकता न्यूक्लियर टॆस्ट के बाद अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबन्ध लगना लाजिमी है और वाजिब भी - लेकिन इस डील में यह गुंजाइश बनती है कि भारत में परमाणु क्षेत्र में लगे भारी निवेश के कारण बाहरी देश परीक्षण की स्थिति में भी प्रतिबंध लगाने से पहले सोचेंगे क्योंकि व्यापर ठप होने का नुकसान उन्हें ही होगा. इस तरह, जब भारत ने 1998 के बाद लगने वाले कड़े प्रतिबंधों को झेल लिया तो इस डील के बाद तो भारत के पास और भी ज़्यादा breathing space होगा - इसलिये भी क्योंकि सिर्फ़ अमेरिकी नहीं बल्कि रूसी, फ़्रेंच और कनाडाई कम्पनियों का भी विकल्प होगा और ये देश भारत से और भी कम शर्तों पर परमाणु-व्यापार करेंगे. फ़्रांस ने तो 1998 के परीक्षण के बाद भी प्रतिबंध नहीं लगाया था.
तो, अगर हम इस डील को हम अगर परमाणु परीक्षण करने की सम्प्रभुता ( जो कि वास्तव में एक क्रूर मजाक है खास तौर पर जब यह तर्क भाजपा जैसी युद्धप्रिय-राष्ट्रवाद की पैरोकार पार्टी की तरफ़ से नहीं बल्कि वामपंथी पार्टियों से आ रहा है) वाली दलील से देखेंगे तो भ्रामक नतीजों पर ही पहूँचेंगे. ऐसे में इस डील पर कोई देशव्यापी जनांदोलन खड़ा नही कर पाना केवल संयोग या सांगठनिक कमजोरी की वजह से नहीं था ।
वामपंथ की चिंता यह रही कि इस डील में भारत को बहुत कम मिला और बहुत बड़ी राष्ट्रीय शर्तों पर मिला । जबकि असलियत यह है कि इस डील का विरोध इसलिए होना चाहिए कि इस डील में भारत को बहुत ज़्यादा मिला और बाकी दुनिया के नियम-कायदों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मिला. इस डील ने निर्णायक तौर पर दुनिया के देशों को ’अच्छे बमों’ और ’बुरे बमों’ वाले देशों में बाँट दिया है, जहाँ अच्छे होने का मतलब अमेरिका के करीब होना है. इसी तर्क पर ईरान के परमाणु-उद्योग, जिसकी मिलिटरी नीयत या क्षमता की अब तक पुष्टि नहीं हुई है, को विश्व-शान्ति के लिये खतरा बताकर उसपर हमले की तैयारी शुरु की जाती है और ठीक उसी समय एक ऐसे देश के परमाणु इरादे को वैधता बख्शी जाती है और सहयोग बढ़ाया जाता है जिसने अपनी जनता और विश्व-जनमत को ठेंगा दिखाते हुए 1998 में परमाणु टेस्ट किए.
इस डील के समापन के बाद, अगर कोई नया देश बम बनाने की सोचे तो उसे प्रतिबन्धों और दुनिया की राय का कोई डर नहीं होगा, बशर्ते वह अमेरिका के साथ रहे. इस डील में असली खराबी यह है कि अपने रणनीतिक फ़ायदे और अपनी परमाणु कम्पनियों के मुनाफ़े के लिये अमेरिका ने निरस्त्रीकरण के उन न्यूनतम मानदंडों को भी तोड़ दिया है जो उसके द्वारा शुरु किये गए आर्म्स-रेस और भारी-भरकम सैन्य उद्योग के बावजूद बचे हुए थे.
इन्हीं मानदंडो की रक्षा के लिये एन.एस.जी. में आस्ट्रिया, न्यूजीलैंड जैसे छोटे देश और दुनिया भर के परमाणु-विरोधी युद्ध विरोधी आंदोलनों ने डील का विरोध किया. नागासाकी से परमाणु विध्वंस झेल चुके लोगों - जिन्हें हिबाकुशा कहा जाता है और जिनकी पीढ़ी अगले 5-7 सालों में सिर्फ़ किताबों में बचेगी - ने एन.एस.जी. को सामुहिक पत्र लिखा कि इस डील को रोका जाना चाहिये.
लेकिन इन सरोकारों के उलट,भारत में परमाणु-डील का विरोध एक ऐसी वामपंथी जमीन पर खड़ा था जो साम्राज्यवाद और अमेरिका को एक ही मानता है और इसका जवाब खारिज हो चुके राष्ट्रवादी विमर्श में ढूँढता है. इस डील को भी हमने सिर्फ़ भारतऔर अमेरिका के बीच सौदे की तरह समझने की गलती की जबकि यह दुनिया भर में आर्म्स रेस और परमाणु-कम्पनियों की लूट-खसोट की एक नई पारी का आगाज़ है.
अगर अभी भी हम इसीलिये चिन्तित हैं कि इस दील में हमें परमाणु-परीक्षण का हमारा वाजिब हक नही मिल रहा तो अब काफ़ी देर हो चुकी है किसी भी सुधार के लिए. बम पूँजीवादी या लाल, हिंदू या मुस्लिम नहीं हुआ करते. जो इस गुमान में हैं कि सोवियत बम जनता का बम था,वे अपने गुमान में तने रहें. सोवियत ढाँचा इसी आर्म्स-रेस के खर्च के बोझ से ढह कर दफ़न हो चुका है !
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पोस्ट इतने गहरे में उतरकर दिखायी देती है कि कई बार भ्रम होता होने लगता है कि सही रास्ते पर उतर भी रहे हैं या नहीं। पोस्ट यदि ऊपर ही दिख सके तो कर दीजिये। अपन तो लगभग लगातर आने वाले ठहरे पर कोई नया पाठक तो एक बारगी चकरा ही जायेगा।
न्यूक्लियर डील पर वामपंथी चिंता यह क्यों होनी चाहिये कि इसके बाद हमको बम फोड़ने की छूट नहीं रहेगी? दोहरे उपयोग वाली न्यूक्लियर तकनीक के लेन-देन में यह सुनिश्चित किया ही जाना चहिये कि इस तकनीक के मिलिटरी उपयोग की गुंजाइश न रहे. परमाणु करार पर ’बम-परीक्षण के अधिकार का हनन’ वाली लाइन पर बहस न सिर्फ़ बेमानी है और भाजपा को ज़्यादा शोभा देती है,बल्कि इस दलील का आधार भी भ्रामक है - इस डील में भारत की बम बनाने की क्षमता घट नहीं रही है बल्कि असल में बढ़ रही है !
यहाँ इसको ठीक से समझने की ज़रुरत है. आयातित यूरेनियम और उन्नत तकनीक बिजली के क्षेत्र में लगने वाली सारी ऊर्जा और संसाधनो के दबाव से भारतीय परमाणु अधिष्ठान को मुक्त कर देगा, सारे परमाणु बिजलीघारों को आयातित ईंधन से चलाया जा सकेगा और तब हमारी सरकारें समूचे घरेलू यूरेनियम और अन्य संसाधनों को बम-निर्माण की सेवा में लगाने के लिये आज़ाद होगी. रही परीक्षण की बात, तो तकनीकी तौर पर किसी भी स्थिति में कोई देश किसी दूसरे देश को परीक्षण से रोक नहीं सकता न्यूक्लियर टॆस्ट के बाद अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबन्ध लगना लाजिमी है और वाजिब भी - लेकिन इस डील में यह गुंजाइश बनती है कि भारत में परमाणु क्षेत्र में लगे भारी निवेश के कारण बाहरी देश परीक्षण की स्थिति में भी प्रतिबंध लगाने से पहले सोचेंगे क्योंकि व्यापर ठप होने का नुकसान उन्हें ही होगा. इस तरह, जब भारत ने 1998 के बाद लगने वाले कड़े प्रतिबंधों को झेल लिया तो इस डील के बाद तो भारत के पास और भी ज़्यादा breathing space होगा - इसलिये भी क्योंकि सिर्फ़ अमेरिकी नहीं बल्कि रूसी, फ़्रेंच और कनाडाई कम्पनियों का भी विकल्प होगा और ये देश भारत से और भी कम शर्तों पर परमाणु-व्यापार करेंगे. फ़्रांस ने तो 1998 के परीक्षण के बाद भी प्रतिबंध नहीं लगाया था.
तो, अगर हम इस डील को हम अगर परमाणु परीक्षण करने की सम्प्रभुता ( जो कि वास्तव में एक क्रूर मजाक है खास तौर पर जब यह तर्क भाजपा जैसी युद्धप्रिय-राष्ट्रवाद की पैरोकार पार्टी की तरफ़ से नहीं बल्कि वामपंथी पार्टियों से आ रहा है) वाली दलील से देखेंगे तो भ्रामक नतीजों पर ही पहूँचेंगे. ऐसे में इस डील पर कोई देशव्यापी जनांदोलन खड़ा नही कर पाना केवल संयोग या सांगठनिक कमजोरी की वजह से नहीं था ।
वामपंथ की चिंता यह रही कि इस डील में भारत को बहुत कम मिला और बहुत बड़ी राष्ट्रीय शर्तों पर मिला । जबकि असलियत यह है कि इस डील का विरोध इसलिए होना चाहिए कि इस डील में भारत को बहुत ज़्यादा मिला और बाकी दुनिया के नियम-कायदों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मिला. इस डील ने निर्णायक तौर पर दुनिया के देशों को ’अच्छे बमों’ और ’बुरे बमों’ वाले देशों में बाँट दिया है, जहाँ अच्छे होने का मतलब अमेरिका के करीब होना है. इसी तर्क पर ईरान के परमाणु-उद्योग, जिसकी मिलिटरी नीयत या क्षमता की अब तक पुष्टि नहीं हुई है, को विश्व-शान्ति के लिये खतरा बताकर उसपर हमले की तैयारी शुरु की जाती है और ठीक उसी समय एक ऐसे देश के परमाणु इरादे को वैधता बख्शी जाती है और सहयोग बढ़ाया जाता है जिसने अपनी जनता और विश्व-जनमत को ठेंगा दिखाते हुए 1998 में परमाणु टेस्ट किए.
इस डील के समापन के बाद, अगर कोई नया देश बम बनाने की सोचे तो उसे प्रतिबन्धों और दुनिया की राय का कोई डर नहीं होगा, बशर्ते वह अमेरिका के साथ रहे. इस डील में असली खराबी यह है कि अपने रणनीतिक फ़ायदे और अपनी परमाणु कम्पनियों के मुनाफ़े के लिये अमेरिका ने निरस्त्रीकरण के उन न्यूनतम मानदंडों को भी तोड़ दिया है जो उसके द्वारा शुरु किये गए आर्म्स-रेस और भारी-भरकम सैन्य उद्योग के बावजूद बचे हुए थे.
इन्हीं मानदंडो की रक्षा के लिये एन.एस.जी. में आस्ट्रिया, न्यूजीलैंड जैसे छोटे देश और दुनिया भर के परमाणु-विरोधी युद्ध विरोधी आंदोलनों ने डील का विरोध किया. नागासाकी से परमाणु विध्वंस झेल चुके लोगों - जिन्हें हिबाकुशा कहा जाता है और जिनकी पीढ़ी अगले 5-7 सालों में सिर्फ़ किताबों में बचेगी - ने एन.एस.जी. को सामुहिक पत्र लिखा कि इस डील को रोका जाना चाहिये.
लेकिन इन सरोकारों के उलट,भारत में परमाणु-डील का विरोध एक ऐसी वामपंथी जमीन पर खड़ा था जो साम्राज्यवाद और अमेरिका को एक ही मानता है और इसका जवाब खारिज हो चुके राष्ट्रवादी विमर्श में ढूँढता है. इस डील को भी हमने सिर्फ़ भारतऔर अमेरिका के बीच सौदे की तरह समझने की गलती की जबकि यह दुनिया भर में आर्म्स रेस और परमाणु-कम्पनियों की लूट-खसोट की एक नई पारी का आगाज़ है.
अगर अभी भी हम इसीलिये चिन्तित हैं कि इस दील में हमें परमाणु-परीक्षण का हमारा वाजिब हक नही मिल रहा तो अब काफ़ी देर हो चुकी है किसी भी सुधार के लिए. बम पूँजीवादी या लाल, हिंदू या मुस्लिम नहीं हुआ करते. जो इस गुमान में हैं कि सोवियत बम जनता का बम था,वे अपने गुमान में तने रहें. सोवियत ढाँचा इसी आर्म्स-रेस के खर्च के बोझ से ढह कर दफ़न हो चुका है !
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