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Saturday, January 12, 2008

जरूरी है परमाणु समझौते को रद्द करना


-नॉंम चौमस्की
प्रजातियों का जीवन दांव पर लगा है। इस स्वीकारोक्ति के साथ आगे बढ़ने का एक बेहतर तरीका है सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण की जरूरत की ओर कदम बढ़ाया जाय।

नाभिकीय शस्त्र रखने और बनाने वाले राज्य अपराधिक राज्य हैं। हालांकि वो परमाणु हथियारं को नष्ट करने वाली परमाणु अप्रसार संधि के धारा 6 को भी मानते हैं। इस कानून पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का भी ठप्पा है। यह न्यायालय परमाणु हथियारों को पूरी तरह नाश करने के लिए अच्छी नियत के साथ बातचीत चलाने की अपील करता है। लेकिन किसी भी परमाणु हथियार संपन्न राज्य ने इसे नहीं माना है। संयुक्त राज्य अमेरिका इसे नकारने वालों का मुखिया है। खासकर बुश प्रशासन जो ये मानता है कि यह धारा 6 का विषय ही नहीं है।

27 जुलाई को वांशिंगटन ने भारत के साथ एक समझौता किया। यह समझौता एनपीटी मुख्य हिस्से को ही खा गया। इसका दोनों ही देशों में पुरजोर विरोध हुआ है। इज़रायल और पाकिस्तान की तरह (लेकिन इरान से अलग) भारत भी एनपीटी का हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं हैं। संधि को धत्ता बताते हुए इसने नाभिकीय हथियारों को विकसित कर लिया है। हाल के समझौते से बुश प्रशासन इस अलग किस्म (कानून से बाहर) के व्यवहार को प्रभावी रूप से समर्थन और सुविधा प्रदान करता है। यह समझौता संयुक्त राज्य के कानून का भी उल्लघंन करता है और परमाणु हथियारों की आपूर्ति करने वाले ग्रुप को अनदेखा करता है। ऐसे 45 देश हैं जिन्होने परमाणु हथियार प्रसार के खतरे को कम करने के लिए कड़े नियमों को स्थापित किया है।
आर्म्स कट्रोल एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक डेरिल किम्बॉल कहते हैं कि "यह समझौता भारत की ओर से भविष्य में किए जाने वाले नाभिकीय परिक्षण को नहीं रोकता है। यह समझौता आश्चर्यजनक रुप से भारत के परमाणु परीक्षण करने पर वाशिंगटन, नई दिल्ली को दूसरे देशों से ईधन हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध करता है। " यह भारत को "बम बनाने के लिए सीमित घरेलु सप्लाई को भी मुक्त करने" की छूट देता है। ये सभी कदम अंतर्राष्ट्रीय अप्रसार संधियों का सीधा-सीधा उल्लघंन करते हैं।
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता दूसरों को भी इस तरह के नियमों को तोडने के लिए संभावित रुप से उकसाता है। ऐसी चर्चा है कि पाकिस्तान नाभिकीय हथियारों के लिए एक प्लुटोनियम उत्पादक रिऐक्टर बनाने जा रहा है। ऐसा लगता है कि हथियारों के रुपों की एक ज्यादा उन्नत अवस्था की शुरुआत हो रही है। क्षेत्रीय नाभिकीय महाशक्ति इजराइल भारत की तरह विशेषाधिकार के लिए कांग्रेस के साथ गुटबाजी करता आ रहा है। उसने नियमों से छूट पाने के निवेदन के साथ परमाणु आपूर्ति समूह से भी संपर्क साधा है। अब फ्रासं रुस और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भारत के साथ परमाणु समझौता करने की तरफ कदम बढ़ा चुके हैं। चीन का पाकिस्तान के साथ है और यह चौंकाने वाली बात है कि किसी समय के सार्वभौमिक महाशक्ति नें दरवाजे खोल दिये हैं।
भारत-अमेरिका समझौता सैन्य और वाणिज्यिक दोनों उद्देश्यों को एक कर देता है। परमाणु हथियारों के विशेषज्ञ गैरी मिल्होलीन ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट कोन्डोलिजा राइस के द्वारा कांग्रेस को दी गयी सफाई को उल्लेखित करते हैं कि समझौता "निजी क्षेत्र को दृढतापूर्वक ध्यान में रख कर बनाया" गया था, खासकर हवाईजहाज और रिऐक्टर्स बनाने वाली कंपनियों के। मिल्होलिन जोर देते हुए कहते हैं कि उसमें सैन्य ऐयरक्राफ्ट शामिल है। इसके अलावा वो आगे कहते हैं कि परमाणु युद्ध के खिलाफ खड़ी रुकावटों को कम आंकने से समझौता न केवल क्षेत्रीय तनाव बढाता है बल्कि "उस दिन की तरफ भी शीघ्रता से बढ़ता है जब एक परमाणु विस्फोट एक अमेरिकी शहर को नष्ट कर देगा"। वाशिगंटन का संदेश हैं कि "संयुक्त राज्य के लिए पैसे की तुलना में आपात नियंत्रण कम महत्वपूर्ण हैं"—अर्थात्, संयुक्त राज्य के व्यापरिक मण्डल के लिए लाभ जरूरी है—चाहे संभावित खतरे कुछ भी हों। किम्बॉल कहते हैं कि संयुक्त राज्य भारत को "एनपीटी पर करार करने वाले देशों के मुकाबले परमाणु व्यापार की ज्यादा सुविधाजनक शर्तें" प्रदान कर रहा है। दुनिया में बहुत कम लोग होंगे जो जो इस कुटिलता को देखने में असफल हैं। वाशिंगटन उन सहयोगियों और ग्राहकों को पुरस्कृत करता है जिन्होने एनपीटी नियमों को पूरी तरह अनदेखा किया है। जबकि इरान के विरुद्ध युद्ध की धमकी दे रहा है जो चरम उकसाव के बाद भी एनपीटी के उल्लघंन के लिए नहीं जाना जाता। अमेरिका ने इरान के दो पड़ोसियों पर कब्जा किया है।1979 में अमेरिकी नियंत्रण से मुक्त होने के बाद से वह खुले तौर पर इरानी राज्य को उखाड फैकने का प्रयास करता रहा है।
पिछले कुछ सालों से भारत और पाकिस्तान ने अपने बीच तनावों को कम करने की दिशा में प्रगति की है। लोगों के बीच संपर्क बढ़ा है और सरकारें दोनों राज्यों को अलग करने वाले कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार-विमर्श कर रहीं है। लेकिन उम्मीद जगाने वाली यह प्रगति भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते से उलट भी सकती है। इस पूरे क्षेत्र में विश्वास पैदा करने वाले माध्यमों में से एक था इरान से लेकर पाकिस्तान से होकर भारत में प्राकृतिक गैस पाइपलाइन का निर्माण था। "शान्ति पाइपलाइन" क्षेत्र को एक सूत्र में बांध दी होती और आगे भी शान्तिपूर्ण एकीकरण की संभावनाओं का द्वार खोलती। पाइपलाइन के जरिए जो उम्मीद लग रही है वह भारत-अमेरिकी समझौते की बलि चढ सकती है। वाशिंगटन भारत को इरानी गैस के बदले में नाभिकीय शक्ति को प्रस्तावित करने की रणनीति को दुश्मन को अलग-थलग करने के एक उपाय की तरह देखता है।
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता वाशिगंटन के ईरान को अलग-थलग करने की रणनीति का ही हिस्सा है। 2006 में अमेरिकी कांग्रेस ने हाईड एक्ट पारित किया । यह एक्ट विशेषरुप से मांग करता है कि अमेरिकी सरकार " इरान के सामूहिक विनाश वाले हथियारों को हासिल करने के प्रयास के लिए हतोत्साहित करने, अलग-थलग करने और अगर जरुरी हो तो प्रतिबन्ध लगाने और रुकावट डालने के प्रयासों में भारत की पूरी और सक्रीय भागीदारी सुनिश्चित करे" ।
यह गौर करने वाली बात है कि बड़ी संख्या में अमेरिकी और इरानी जनता इजरायल और इरान को शामिल करते हुए इस पूरे क्षेत्र को ही नाभिकीय हथियार मुक्त क्षेत्र में बदलने के पक्ष में है। 3 अप्रैल, 1991 के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 687 तो बहुत से लोगों को याद होगा । जो कि मांग करता है कि " मध्य पूर्व में सामूहिक विनाश वाले हथियारों और उनको संचालित करने वाली सभी मिशाइलों से मुक्त क्षेत्र की स्थापना की जाय।" अमेरिका ने इराक पर अपने आक्रमण की सफाई के दौरान नियमित रुप से इस अपील का सहारा लेता रहा है।
अनुवाद-नूतन मौर्या

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