Friday, November 30, 2007
तस्लीमा 'द्बिखंडितो' से कुछ अंश हटाएँगी
विवादों में घिरी बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने कहा कि वे अपनी किताब 'द्बिखंडितो' में से विवादास्पद अंश हटाने को तैयार हैं. इसका कारण उन्होंने इसके विरोध में भारत में हो रहे ज़ोरदार प्रदर्शन को बताया । द्विखंडिता को कई लोगों ने अलग-अलग नजरिए से देखा है। लेकिन इस किताब में आखिर कौन से सवाल थे जिसे सही तरीके से नहीं समझा गया। हम किस्तों में द्विखंडिता पर एक लंबा लेख देने जा रहे हैं-
(द्विखण्डित आत्म : द्विखण्डित प्रेम)
-प्रणय कृष्ण
'द्विखण्डित`-तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा का तीसरा खण्ड,सारे गलत कारणों से चर्चित रहा। दिल की गहराइयों को स्पर्श करने वाली इस मार्मिक आत्मकथा को उसपर चली बाजारू चर्चाओं ने ढंक लिया। इस आत्मकथा के इकलौते और अत्यंत मार्मिक प्रेम प्रसंग पर यह टिप्पणी और कुछ नहीं, पाठकों से इसे मुक्त सेक्स की चटखार के लिए नहीं,बल्कि ज़िन्दगी के गहरे अनुभवों के साक्षात्कार के लिए पढ़ने की गुज़ारिश है।
'उत्ताल हवा` और 'द्विखण्डित` (तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा के दूसरे और तीसरे खंड) के सैकड़ों पृष्ठों में फैली रूद्र और तस्लीमा की प्रेमकथा कतई सिर्फ प्रेमकथा नहीं है। यहां 'प्रेम-कहानी` भी जीवन के सैकड़ों दूसरे अनुभवों के बीच ही पलती बढ़ती है। इस टिप्पणी में 'प्रेमकथा` को केन्द्रित दो कारणों से किया गया है। एक तो इसलिए कि ये भरम टूटे कि ये यौन-संबंधों की अराजकता का वृतांत है। रूद्र और तस्लीमा की प्रेमकहानी यातनाओं की लम्बी सुरंग से गुज़रकर लेखिका को जिस उदात्त भावनात्मक ऊंचाई तक ले जाती है, उसका रेखांकन इस भ्रम को तोड़ने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरे, इसलिए कि इस 'प्रेम-कहानी` में लेखिका के आत्मविभाजन, और उससे निकलने की छटपटाहट के लिए आत्मकथा लिखने की प्रेरणा के बीज छिपे हुए है। रूद्र से संबंध-विच्छेद के बहुत दिन बाद भी उसके खत के इंतजार करने के प्रसंग में लेखिका का 'आत्मविभाजन`,उसका 'द्विखण्डित` होना सीधे शब्दों में अभिव्यक्ति पाता है-''मुझे मालुम था कि पहले की तरह, अब किसी दिन भी, कोई खत मुझे नहीं मिलना है, फिर भी मेरे अंदर जड़ जमाकर बैठी हुई इच्छाएं, ढीठ बच्ची की तरह, जाने कैसे तो हड़बड़ाकर बाहर निकल आती थीं। दरअसल यह मैं नहीं हूं, कोई और है, जो जानी-पहचानी लिखावट में खत न पाकर लम्बी उसांसें भरती रहती है। हर दिन डाकिए के सौंपे हुए खत हाथों में लेकर उसकी लम्बी-लम्बी उसांसों की आवाजें सुनती हूं। नहीं, वह आवाज मेरी नहीं होती। किसी और की होती है। कहीं किसी गुप्त कोठरी में छिपकर बैठी हुई वह कोई दूसरी। मैं उसे धकियाकर दूर खदेड़ देने की कोशिश करती हूं, लेकिन नाकाम रहती हूं।`` (द्विखण्डित पृश्ठ ४१-४२) दरअसल गुप्त कोठरी में छिपकर बैठी हुई उस 'दूसरी` को दूर खदेड़ने की नाकामी ही उससे आत्मकथा लिखा ले जाती है। यह आत्मकथा उस दुर्निवार 'दूसरी` की जिद है बाहर आने की। इसीलिए ये आत्मकथा 'द्विखण्डित` है- निर्वासित 'आत्म` के स्पंदनों से रची गई।
'द्विखण्डित` महज तस्लीमा की कहानी नहीं है। हैजा से अपने तीनों भाईयों को रेहाना सब कुछ दांव पर लगाकर बचा ले आई-लेकिन हैजा खुद उसे ही उसे लील गया। उसी रेहाना से अपने डाक्टरी जीवन की पहली फीस लेनेवाली तस्लीमा का भीषण अपराध-बोध हमारे अपने जीवन के न जाने कितने छटपटाते पछतावों की याद हरी कर देता है। तस्लीमा की भाभी गीता अपने बच्चे सुहृद पर बरसते सास और ननद के बेइंतेहा प्यार से इतनी आक्रांत हो उठती है कि अपनी ही कोख से जने बच्चे को सौतेला बना डालती है। पारिवारिक शक्ति-संबंधों में पिसती कितनी ही कोमल जिन्दगियों की कथा 'सुहृद` की ही कहानी है-जिसे हम भी जानते है लेकिन दिल की गहराइयों में दफन कर देते हैं। 'द्विखण्डित` दिल के भीतर दफन इन कहानियों को हृदयविदारक चीख की तरह बाहर खींच लाती है। 'द्विखण्डित` सिर्फ तस्लीमा की अपनी कहानी नहीं-वह रेहाना की भी कहानी है, सुहृद की भी, रूद्र की भी कहानी है-बलात्कार के बाद अपनी आवाज खो चुकी बकुली की भी कहानी है। रेहाना और रूद्र नहीं रहे, सुहृद बच्चा है और बकुली की आवाज चली गई है-कौन कहेगा इनकी कहानी? 'द्विखण्डित` उनकी कथा कहने की जिम्मेदारी उठाती है। कोई भी अच्छी आत्मकथा इसीलिए सिर्फ लेखिका की अपनी कहानी नहीं होती। जिम्मेदारी उठाना खतरे उठाना भी है। इसीलिए अभिव्यक्ति की ताकत के धनी तमाम नामचीन कवि कलाकारों की जिन्दगी के स्याह सफों को रोषनी में लाने की सजा भी 'द्विखण्डित` को मिली-प्रतिबंध लगा। द्विखण्डित बांग्ला जाति की भी कथा है, धर्मों और भाषाओं के संघर्ष की भी कथा है, बांग्लादेश के राजनैतिक सफर की कहानी भी है, साहित्यिक पुरस्कारों के भीतर की राजनीति भी बयान करती है-साम्प्रदायिक उन्माद और धार्मिक कट्टरता में घुटते नवजात लोकतंत्र के संत्रास का भोगा हुआ वृतांत भी है। बड़े लोगों की लाज बचाना सामंती-बूर्जुआ स्वतंत्र की जिम्मेदारी है और उन्हें निर्वस्त्र करना निर्भीक कलाकारों की। मर्द और धर्म और कानून की मिली जुली क्रूरता और छल की शिकार एक छोटे षहर में पली बढ़ी इस संवेदनशील मध्यवर्गीय लड़की की कहानी क्या हमारे ही घर-परिवार, आस-पड़ोस, मुहल्ले-टोले का अलबम नहीं है? आंसुओं में नम तमाम लड़कियों के उदास चेहरों की भुला दी गई स्मृतियां किसी ज्वार सी उठती हैं हममें जब हम तस्लीमा से रूबरू होते हैं। जिनके साथ ऐसा नहीं हुआ, उन्हें दिल नहीं मिला है। अच्छी कविता पाठक को भी कवि बनाती है। अच्छी आत्मकथा आपकी 'निजता`से संवाद करती है-आपको 'आप` से मिलाती है-आपके 'आत्मनिर्वासन` को भंग करती है-आपकी अपनी कहानी में घुलमिल जाती है। इसी तरीके से पढ़ा जा सकता है 'द्विखण्डित`को और आत्म कथा के बाकी खण्डों को भी। अपने ही आस-पड़ोस की एक लड़की ने क्या सचमुच सिर्फ अपनी कहानी कही है?
किसी मित्र ने एक बार कहा कि सच्ची प्रेमकथाएं वास्तव में आत्मकथाएं होती हैं। मुझे एक और वक्तव्य याद आया ''सभी आत्मकथाएं झूठी होती हैं।`` इन दोनों बयानों को मिला कर पढ़ना भारी उलझन मोल लेना है। बहरहाल,तस्लीमा की आत्मकथा में, लेखिका के 'आत्म` के बनने और टूटने में उस के जीवन के इकलौते प्रेम का भारी महत्व है। कहीं वो कहती भी है कि प्रेम शायद जीवन में एक बार ही होता है। तस्लीमा के जीवन में अनेक पुरूष आए-गए, लेकिन 'प्रेम` पूरी आत्मकथा में सिर्फ एक ही है-'रूद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह` से। यह प्रेम एक रोमान ही है, वास्तविकता की ज़मीन पर उतरते ही जिसने भयानक ज़ख्म दिए और ट्रेजिडी में परिणत हुआ। 'उछाल हवा` लेखिका के किशोर और आरंभिक यौवन तथा 'द्विखण्डित` उसके युवा, वयस्क जीवन की कथा है-आत्मकथा का क्रमश: दूसरा और तीसरा खंड । दोनों खण्डों के शीर्षक इसी प्रेम की दो मनोदशाओं के सूचक हैं। 'उत्ताल हवा` आरम्भिक प्रेम की मदमस्त रूमानियत का सूचक है-कविताओं और पत्रों के आदान-प्रदान से शुरू हुआ कालेज का प्रेम -सपनों और निर्बंध कल्पनाओं में परवान चढ़ता हुआ -शरीर के यथार्थ से बचता-सकुचाता, लेकिन उसके प्रति कौतूहल से भरा। 'प्यार-कविता-विद्रोह`-रूमानियत का स्टैण्डर्ड पैकेज-मध्यमवर्ग के व्यक्तित्वों की चेतना का एक आवश्यक पड़ाव। 'द्विखण्डित` उस प्रेम के यथार्थ का सूचक है जिसने व्यक्तित्व को ही विभाजित कर दिया।
आत्मकथा समय के एक निश्चित बिंदु पर लिखी जाती है - इसलिए वह बीते हुए जीवन को फिर से जीने का भी उपक्रम है और उसकी समीक्षा भी। 'बीते हुए जीवन को फिर से स्मृतियों में जीना` एक बेहद कष्टसाध्य और अपूर्व धैर्य की मांग करने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में लेखिका भीषण जीवटता के साथ उतरी है। बचपन, किशोरावस्था और यौवन की बेइंतेहा यंत्रणाओं के ब्यौरों में फिर से उतरना और उनका ऐसा बयान करना कि 'लिखने` और 'भोगने` की कालगत दूरी का अहसास गायब हो जाए-इस आत्मकथा को दुनिया की महानतम और सबसे सच्ची आत्मकथाओं में स्थान दिला देता है। 'रूद्र और तस्लीमा` की प्रेम-कहानी इस आत्मकथा के अनुभव की विश्वसनीयता का अपूर्व आलेख है। इस प्रेम ने लेखिका के व्यक्तित्व को 'द्विखण्डित` किया है-शायद सदा के लिए यहां तक कि इस प्रेम का बयान भी विभाजित है। एक बयान जो अनुभव की यात्रा के समानान्तर चलता है -दूसरा बयान जो कि काल की दूरी पर अनुभव की समीक्षा करता है। दोनों सच हैं - अलग-अलग समयों के आत्मगत सच, परस्पर विरोधी भी नहीं पर पूरी तरह एकमेक भी नहीं। रूद्र की मृत्यु के बहुत बाद 'कैसर` के प्रति प्रेम महसूस करने के समय का बयान है-
''अच्छा, क्या मैंने किसी से प्यार किया था या प्यार का सिर्फ ख्याल ही लादे फिरती रही हूं ? मैंने यह अद्भुत-सा सवाल, खुद अपने से करना शुरू किया। रूद्र से मेरा जो रिश्ता था, उसे किन-किन कारणों से प्यार कहा जा सकता है? और किन-किन कारणों से प्यार नहीं कहा जा सकता? जब इसका हिसाब-किताब किया, तो देखा, रूद्र के प्रति मेरा तीखा आकर्षण जरूर था, रूद्र के अनाचार ने लम्बे अर्से तक मुझे उससे विमुख नहीं होने दिया, लेकिन इसके पीछे प्यार नहीं, कुछ और था। इस 'कुछ और` में शामिल थी, नि:संगता, प्यार करने का आग्रह और प्यार के बारे में धारणाएं! प्यार करते हुए, इन्सान जो-जो सामाजिक आचरण करता है, वह मैं जान गई थी, इसलिए वहीं-वहीं आचरण मैं भी करती रही। ये आचरण सीखे-पढ़े थे। ये आचरण मेरे अपने नहीं थे। रूद्र की चंद कविताएं, मैंने किसी साप्ताहिक में पढ़ी थीं, बस, इतना भर ही। इसके बाद एक दिन मुझे रूद्र का खत मिला, जब उसने मेरी सम्पादित कविता-पत्रिका, 'संझा-बाती` के लिए अपनी कविताएं भेजी थीं। जवाब में, मैंने भी खत लिखा। इस तरह पत्राचार षुरू हो गया। जिसे मैंने कभी देखा नहीं, जिसके बारे में मैं कुछ जानती नहीं थी, उसकी मुहब्बत में पड़ गई। सूरत-शक्ल से रूद्र किसी भी मायने में सुदर्शन नहीं था। पहली बार, जब उसे देखा था, तो मुझे उबकाई के अलावा और कोई अहसास नहीं हुआ था। रूद्र की कविताएं मुझे अच्छी लगती थीं। लेकिन ऐसे तो मुझे जाने कितनों की कविताएं अच्छी लगती थीं। असल में मैं प्यार के ख्याल से प्यार कर बैठी थी।`` (द्विखंडित, पृश्ठ ३०९)
यह बयान बहुत कुछ सच्चा है क्योंकि वो रूद्र के साथ प्रेम शुरू होने के क्षणों के बयान के मेल में है। लेकिन दोनों बयानों में अनुभव के दो भिन्न धरातल हैं। दु:स्वप्न जैसे प्रेम की पूरी यात्रा से निकलने के बाद लेखिका रूद्र के प्रति अपने एकनिष्ठ संबंध को 'तीखे आकर्षण` की ही संज्ञा देना चाहती है, 'प्यार` की नहीं। यह कहते हुए भी कि-''असल में मैं प्यार के ख्याल से प्यार कर बैठी थी`` लेखिका 'प्यार के ख्याल से प्यार` से मुक्त नहीं हो पाई। 'प्यार` को लेकर उसका रूमानी आदर्शवाद ही उसे रूद्र के प्रति अपने संबंध को 'प्यार` कहने से रोक रहा है। रूद्र की मृत्यु के बाद भी उसके शब्दों और स्पर्षों को इतने दिनों तक अपने भीतर लिए रहने के बाद, वो अंतत: उन्हें विदाई देना चाहती है, अपने ही व्यक्तित्व के एक हिस्से का अंतिम विसर्जन करना चाहती है-
''सपने का शख्स, अगर सपने में ही बसा रहे, तो बेहतर होता है। रोजमर्रा की जिंदगी में उसे शामिल करके, उसे धूल-धूसरित न करना ही बेहतर है। सपने हमेशा पहुंच के बाहर होते हैं, शुद्ध विमल रहते हैं, झक-झक जगमगाते हुए, खूबसूरत बने रहें। हां, बेहतर हो, सपने अपनी धर-पकड़ से परे हों। जिंदगी भर उन सपनों की पतंग उड़ाती रहूं और किसी दिन भी वह 'वो-काट्टा` न हो। वह पतंग कभी कटे नहीं। सपनों का सुख बना रहे। यही सोच-सोचकर, मैंने अपने सपनों को, अपने दु:ख-शोक से दूर रखा। अपनी सियाह कालिमा से उसे परे रखकर, मैं खुद अपने पर धूल-मिट्टी चढ़ाती रही। हां, देह की जरूरत पर, चंद पुरूषों से देह-विनियम जरूर हुआ। पहली बार शारीरिक सुख आविष्कार करने की उत्तेजना, मैंने रूद्र के साथ महसूस की थी। रूद्र जब जिंदगी में नहीं रहा, तब एक-एक करके मिलन, नईम, मीनार के साथ देह-स्पर्श का खेल चला। इस खेल में मेरे सुख के बावजूद, उनका सुख ही अहम् रहा।`` (द्विखंडित, पृष्ठ ३१२)
पुरूषों के साथ अनुभव ने उसे सिखाया है कि 'इस खेल में मेरे सुख के बावजूद उनका सुख ही अहम रहा`, लिहाजा वो इन संबंधों को 'आकर्षण`, 'खेल` या 'देह विनियम` जैसे शब्द देती है- 'प्यार` कहना नहीं चाहती। तब फिर प्यार क्या है?- एक कल्पना, एक स्वप्न, एक फैंटेसी। दरअसल प्यार के बारे में यह भी एक धारणा ही है-एक सामाजिक बौद्धिक आचरण जो न्याय, स्वतंत्रता, सुख और सौन्दर्य की मानवीय आकांक्षाओं की कल्पना या यूटोपिया की तरह 'प्यार` को बरतता है। विषमताग्रस्त दुनिया में इसीलिए रूमानियत का कहीं अन्त नहीं। जारी...
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