Sunday, October 28, 2007
समग्रता को अंश में देखता है अवसरवाद
कंम्यूनिस्ट पार्टियों से जुड़े अनुभवों को बाजार के सामने बांटने की अदा लारेन डेसिंग को नोबल पुरस्कार तक ले गई। ऐसे पुरस्कारों के लिए विचारों की पेंशन घूस में देनी पड़ती है। इस तरह की कोशिश बहुत पहले से होती रही है और अभी भी जारी है। ऐसे लोगों के झोले में दोनों तरह का माल होता है मार्क्सवाद भी और उदारवाद भी, जहां जरूरत पड़े बस वहीं उसे लगा दो। लेकिन राजनीति से कट जाने के कारण उनका बौद्धिक जामा महज बिसुरन कला में ही आश्रय ढूंढता है। यह 1990 के बाद और तेजी से देखने को मिला। बाजारवादी विचार वाले किसी टेबल पर मक्खी बन कर बैठने के इंतजार में बौद्धिकता कुंद होती जाती है। पूरी की पूरी रचना प्रक्रिया ही ठहर जाती है। क्योंकि रचनात्मकता केवल व्यक्तिगत पहल से नहीं बल्कि संघर्षों की ताप महसूस करने से आती है। शायद इसलिए वैचारिक पलायन करने वाले ज्यादातर रचनाकर्मियों की कला में पहले जैसी तेजी नहीं रहती और वह भोथरी होती जाती है। यह वैचारिक बदलाव में भी दिखने लगता है। किसी भी ट्रेंड को बहुत सीमित नजरिए से देखने की आदत पड़ती जाती है। यही तरीका धीरे-धीरे अवसरवादी व्यवहार करने लगता है और समग्रता को अंश में देखने लगता है।
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