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Wednesday, October 3, 2007

सम्राज्यवाद की विचारधारा


-पॉल एम स्वीजी
वित्तीय पूंजी की विचारधारा उदारवाद से बिल्कुल उलट होती है। वित्तीय पूंजी स्वतन्त्रता ही नहीं प्रभुत्व भी चाहती है। वैसे इसमें किसी पूंजीपति को व्यक्तिगत तौर पर तो आजादी का स्वाद नहीं मिलता लेकिन उसके संगठन की मांग हमेशा बनी रहती है। वित्तीय पूंजी की प्रतियोगिता की अराजकता से घृणा करती है और संगठन की इच्छा पर जोर देती है, ताकि प्रतियोगिता केवल ऊपरी स्तर पर ही संभव हो सके। इसे प्राप्त करने और ताकत बढ़ाने के लिए राज्य संरक्षित एक घरेलू बाजार की उसे गारंटी चाहिए। राज्य सत्ता की ऐसी ही कुछ जरूरत उसे विदेशी बाजारों पर कब्जे के लिए भी होती है। जाहिर है इसके लिए उसे राजनैतिक रूप से एक बेहद मजबूत राज्य भी चाहिए। जिसकी वाणिज्यिक नीतियों पर किसी और राज्य का दखल संभव न हो और उसके विरोधी के हितों को नजरंदाज किया जा सके।

इसके लिए एक ऐसा राज्य चाहिए जो देश के बाहर के वित्तीय पूंजी के महत्व को बखूबी पहचानता हो और साथ ही छोटे राज्यों से अनुकूल समझौते कराने में राजनैतिक ताकत का भी प्रयोग करता हो। यानी वह पूरी दुनिया को निवेश के लिए तैयार कर सके। कुल मिलाकर वित्तीय पूंजी को ऐसे राज्य की जरूरत होती है जो विस्तार की नीति पर चलने और नए उपनिवेश तैयार करने में सक्षम हो। जबकि उदारवाद को देखें तो वह राज्य शक्ति के ऐसे इस्तेमाल राजनीति का विरोधी था और वह अभिजात तन्त्र और अधिकारीतन्त्र की पुरानी ताकत के खिलाफ केवल अपने प्रभुत्व को सुनिश्चित करने की इच्छा तक ही सीमित था। राज्य की शक्ति के इस उपकरण का दायरा उदारवाद ने बहुत छोटा कर दिया था, जबकि वित्तीय पूंजी के लिए राजनीतिक ताकत के इस्तेमाल की कोई सीमा नही है। कई बार तो यह देखने को भी मिला है कि थलसेना और जलसेना की बड़ी लागत वाले मुहिम में भी शक्तिशाली पूंजीपति समूहों को बडे एकाधिकारिक लाभों के साथ किसी एक महत्वपूर्ण बाजार के लिए सीधेतौर पर कभी आश्वस्त नही किया।

विस्तार की नीति की मांग बुर्जुआ के सम्पूर्ण विश्वदृष्टि की कायापलट कर देती है। बुर्जुआ अब शान्त और मानवीय नहीं रह जाता। पुराने स्वतन्त्र व्यापारी केवल बेहतर आर्थिक नीति के तर्ज पर मुक्त व्यापार में विश्वास नहीं करते थे, बल्कि इसे शान्ति के एक युग की शुरुआत मानते थे। वित्तीय पूंजी शुरुआत से ही ऐसी किसी धारणा को नहीं मानती। यह पूंजीपति के हितों के सौहार्द में विश्वास नहीं करती। उसे पता है कि प्रतिस्पर्द्धात्मक संघर्ष सत्ता के लिए लड़ी जाने वाली राजनैतिक लडाई के ज्यादा नजदीक ले जाता है। यहां शान्ति का आदर्श को लकवा मार जाता है। मानवीय आदर्श की जगह राज्य की सत्ता और शक्ति आ जाती है। हालांकि कई बार यह आधुनिक राज्य की उत्पत्ति के क्रम में राष्ट्रों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक एकता की ओर भी ले गई। इस राष्ट्रीय आकांक्षा ने राज्य के भौगोलिक सीमा की तरह राष्ट्र के निर्माण में भी इस्तेमाल किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसने प्रत्येक राष्ट्र के अधिकार को स्वयं अपने राज्य के ढांचे के दायरे में मान्यता दी। राज्य की सीमाओं को राष्ट्र की प्राकृतिक सीमाओं के रूप में देखा गया। यही से एक राष्ट्र ने दूसरे पर प्रभुत्व स्थापित करने की ओर कदम बढ़ाना शुरू कर दिया। दुनिया पर अधिपत्य की ख्वाहिश का सपना कुछ राष्ट्रों के लिए आदर्श रूप ले लिया और इसे लेकर तगड़ी प्रतिस्पर्धा जन्म लेने लगी। इस प्रतिस्पर्धा ने असीमित रूप धारण किया और यह पूंजी लाभ के लिए होने वाली प्रतिस्पर्द्धा में तब्दील होती गई। पूंजी विश्व विजेता बन जाती है और प्रत्येक नयी विजित भूमि के साथ कुछ नयी सीमाओं को तय करती रही है। ये और बात है कि उसी वक्त उनके अतिक्रमण की योजना भी तय हो जाती है।

यह प्रतिस्पर्द्धा एक आर्थिक अनिवार्यता बन जाती है,क्योकि इसमें कोई भी रुकावट वित्तीय पूंजी के लाभ को घटाती है। वह प्रतियोगिता की योग्यता को कम करती है और अन्ततः यह महज बड़े आर्थिक क्षेत्र का पिछलग्गू बनकर उभरता है। आर्थिक रुप से स्थापित राष्ट्रों के लिहाज से विचारों का यह खाका न्याय संगत है। यह प्रत्येक राष्ट्र के राजनैतिक स्व-निर्धारण और स्वतन्त्रता के अधिकार को अब मान्यता नहीं देता। यह राष्ट्रीयताओं की समानता के लोकतान्त्रिक विश्वास की अभिव्यक्ति भी नहीं रह जाता उसकी जगह यह एकाधिकार के आर्थिक लाभ के लिए अनुकूल जगह के रूप में प्रचारित किया जाता है। इस बात को किसी न किसी राष्ट्र को अपने पर आरोपित करना होता है। चूंकि विदेशी राष्ट्रों की अधीनता का स्रोत ताकत है लिहाजा नैसर्गिक रुप में प्रभुत्वशाली राष्ट्र को यह लगने लगता है कि वह अपने विशेष प्राकृतिक गुणों पर या कहें तो अपने नस्लीय विशिष्टता पर अपने आधिपत्य स्वामी का ऋणी बन चुका है और यहीं से नस्लीय विचारधारा का वित्तीय पूंजी से गठजोड़ होता है। जो सत्ता वासना के लिए एक वैज्ञानिक आवरण के साथ दिखाई पड़ता है। यह अपने इस क्रियाकलाप को बुहत ही जरूरी और उसकी अनिवार्यता को बढ़चढ़कर प्रदर्शित करता है। समानता के लोकतान्त्रिक आदर्श को हटाकर आधिपत्य का कुलीनतंत्र वाला आदर्श बैठ जाता है। जहां विदेश नीति के मुद्दे पर यही आदर्श पूरे राष्ट्र को समाहित करता हुआ प्रतीत होता है,वहीं आन्तरिक मामलों में श्रमिक वर्ग के विरोधी के रूप में आधिपत्य के विचारों को सहयोग और बल प्रदान करता है।
कुल मिलाकर सम्राज्यवाद की विचारधारा पुराने उदार आदर्शों की कब्र पर पैदा होती है। यह उदारवाद की निष्कपटता का उपहास करते हुए आ धमकती है। यह माया नहीं तो और क्या है कि हितों के सौहार्द और पूंजीवादी संघर्ष के संसार में हथियारों की श्रेष्ठता ही अकेले निर्णय करती है। यहां शाश्वत शान्ति के लिए तो राज्य की ओर देखना होता है लेकिन हर वक्त एक अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उपदेश भी गुंजता रहता है। यह सब उस वक्त चल रहा होता है जब लोगों के भाग्य का निर्णय केवल एक खास ताकत कर रही होती है। इसे अव्वल दर्जे की मुर्खता नहीं तो और क्या कहेंगे कि एक राज्य में मौजूद वैधानिक संबधों को उसकी सीमाओं से कही आगे बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की जा रही हो। यह गैर जिम्मेदाराना व्यापारिक रुकावट एक मानवीय मुखौटे के भीतर से पेश की जा रही थी और उसने मजदूरों के बीच एक भ्रम पैदा किया। सामाजिक सुधारों की खोज घरों से शुरू हुई और शोषण के तरीके ने एक तार्किक जामा ओढ़ लिया। उपनिवेशों के मौजूदा अनुबंधित दासता को हटाने के नाम पर इसने चोर दरवाजे से अनिवार्य दासता स्थापित कर दी। वैसे भी शास्वत न्याय तो एक प्यारा सपना है!हम दुनिया को कैसे जीत सकते हैं जब तक हम धर्म को हासिल करने के लिए प्रतियोगिता का इन्तजार करना चाहते हैं?


अनु-दीपू राय

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