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Sunday, March 21, 2010

सृजनोत्सव: जनसंघर्ष और प्रतिरोध के संस्कृतिकर्म को राष्ट्रीय मंच देने की पहल

सो रहा संसार, पूंजी का विकट भ्रमजाल
किन्तु फिर भी सर्जना के एक छोटे से नगर में/ जागता है एक नुक्कड़
चिटकती चिंगारियां/ उठता धुंआ है/ सुलगता है एक लक्कड़
तिलमिलाते लोग सुनकर, देखकर अन्याय
और लड़ने का अब भी बनाते मन मछन्दर
फिर नए संघर्ष का उन्वान लेकर/ जाग मेरे मन मछन्दर


एक ओर सामाजिक-आर्थिक प्रगति के झूठ के प्रचार और अपने लूट को ढंकने वाली सत्ता संस्कृति के विज्ञापन और दूसरी ओर अराजक तरीके से किए जा रहे उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों के विज्ञापन, बिहार में आजकल पहली नज़र में इसी की भरमार दिखती है. जनता के बुनियादी सवालों को घनघोर विज्ञापनबाजी के जरिए ढंक देने की जैसे एक जबर्दस्त कोशिश चल रही है. ऐसे ही समय में जसम ने बिहार की राजधानी पटना में 12से 14 मार्च तक जनकवि नागार्जुन की स्मृति को समर्पित सृजनोत्सव का आयोजन किया. जिसका उद्घाटन करते हुए जनसंस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि सृजनोत्सव पूरे मुल्क में विभिन्न भाषाओं, बोलियों और कलारूपों में जनता के रोजमर्रे के संघर्षों और आन्दोलनों को एक मंच देने की ‘शुरुआत है. उद्घाटन वक्तव्य से पहले पंजाब से आए मेहनतकश जनता और दलित स्वाभिमान के संघर्षशील प्रतीक बन चुके जनगायक बन्त सिंह ने जिस तरह किसान-मजदूरों की एकता की जरूरत बताते हुए अपने गीत में न्याय के लिए लड़ने वाली बेटियों की आकांक्षा को स्वर दिया उसके जरिए भी इस आयोजन का मकसद अभिव्यक्त हुआ. अपने बेटी के बलात्कारियों को दण्डित करवाने के संघर्ष के दौरान कांग्रेस समर्थक जमीन्दारों ने बन्त सिंह के पैर और हाथ काट दिए थे, मगर इसके बावजूद प्रतिरोध की संस्कृति और राजनीति के लिए वे उतने ही बुलन्द इरादे से सक्रिय हैं.

अपने उद्घाटन वक्तव्य में प्रणय कृश्ण ने कहा कि हिन्दुस्तान अभी भी करोड़ों मेहनतकशों का राश्ट्र नहीं बन सका है. ‘शासकवर्ग और बाजार के जरिए जिस संस्कृति को पेश किया जाता है, वहां मेहनतकशों की राष्ट्रीय संस्कृति नज़र नहीं आती. प्रभु वर्गों की कुलीन संस्कृति में मेहनतकश आदिवासी जनता सिर्फ सजावटी हिस्सा बनकर रह जाते हैं. उनके जीवन के संघर्ष, उनकी पीड़ा और उनकी आकांक्षा को वहां जगह नहीं मिलती. जिस तरह अमेरिका में रेड इण्डियन को नष्ट करके संग्रहालयों की चीज बना दिया गया, उसी तरह का व्यवहार यहां ‘शासकवर्ग आदिवासियों के साथ कर रहा है, जिसका जोरदार प्रतिरोध जरूरी है. यह सृजनोत्सव मेहनतकश जनता के संघर्ष और प्रतिरोध की संस्कृति तथा उनकी साझी राश्ट्रीय संस्कृति को ताकतवर बनाने और एक बेहतर मानवीय व्यवस्था के लिए जारी जद्दोजहद का एक अंग है.
प्रणय कृष्ण ने कहा कि नागार्जुन की पूरी जिन्दगी और उनका रचनाकर्म जनकार्रवाइयों और जनान्दोलनों के जरिए निर्मित हुआ था, नागार्जुन के साथ ही यह वर्ष केदारनाथ अग्रवाल, ‘शमशेर, अज्ञेय और फैज का भी जन्मशताब्दी वर्ष है. जसम की ओर से इस दौरान जन संस्कृति की परंपरा के मूल्यांकन और उसे मजबूत बनाने के लिहाज से इन सारे रचनाकारों पर पूरे देश में आयोजन किए जाएंगे.

मैथिली कथाकार अशोक ने निरन्तर बढ़ती आत्मकेन्द्रित संस्कृति के प्रति फिक्र जाहिर करते हुए नागार्जुन के जनजुड़ाव को एक जरूरत की तरह याद किया. अध्यक्षता कर रहे लोकयुद्ध पत्रिका के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय ने कहा कि झूठ, लूट और दमन की ‘शासकवर्गीय संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध की सारी परंपराओं को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा. यह वर्ष स्वामी सहजानन्द सरस्वती का भी जन्मशती वर्ष है, जिनके नेतृत्व में चले किसान आन्दोलन में व्यक्ति और रचनाकार दोनों स्तर पर नागार्जुन शामिल थे.

आज के सांस्कृतिक संघर्षों के लिए हम अपनी परंपरा से क्या ले सकते हैं, इसकी बानगी सृजनोत्सव में विभिन्न कलारूपों और विधाओं तथा भाषाओं और बोलियों में हुई प्रस्तुतियों में नज़र आई. एक ओर हिरावल (पटना) ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बेहद लोकप्रिय नाटक को आज के ‘शासकीय दमन के सन्दर्भों से जोड़कर पेश किया, वहीं दस्ता (बनारस) ने इंकलाबी ‘शायर वामिक जौनपुरी की रचनाओं को गाकर सुनाया. चर्चित युवा रचनाकार हरिओम द्वारा पूरे दक्षिण एशिया में मशहूर इंकलाबी ‘शायर फैज अहमद फैज की कई मकबूल गजलों और नज्मों को एक नए अन्दाज में पेश किया. इस तरह साझी संस्कृति और साझी विरासत के साथ ही इंकलाब के ख्वाब के प्रति हमारे दौर के संस्कृतिकर्मियों का जुड़ाव प्रदर्शित हुआ.
सृजनोत्सव का एक जबर्दस्त आकर्षण था भारत के महान जनवादी चित्रकारों चित्तप्रसाद, जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के चित्रों की प्रदर्शनी. इस जनचित्रकला की परंपरा से लोगों को परिचित कराने में चित्रकार अशोक भौमिक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बंगाल के महाअकाल, महाराष्ट्र के अकाल और बाढ़, अनाथ, बाल श्रमिक से सम्बंधित चित्तप्रसाद के चित्र इस आयोजन में प्रदर्शित थे. चित्तप्रसाद ने नौसेना विद्रोह में हिस्सा लिया था और उस विद्रोह से सम्बंधित चित्र भी बनाए थे. उन्हीं की तरह जैनुल आबेदिन बांग्ला देश के मुक्तियुद्ध में सक्रिय थे. बंगाल के अकाल पर बनाए गए उनके चित्र दस्तावेज की मान्यता रखते हैं. तेभागा आन्दोलन के चित्रों के जरिए बहुचर्चित, `तेभागा डायरी´ के रचनाकार सोमनाथ होड़ द्वारा बनाए गए खेत मजदूरों के जीवन के अविस्मरणीय चित्र भी इस प्रदर्शनी में ‘शामिल थे. इसके साथ ही श्रमशील आदिवासी जीवन से सम्बंधित युवा मूर्तिकार-चित्रकार मनोज पंकज के कांस्य शिल्प और रेखाचित्र, महिलाओं की ‘शाक्ति और सामर्थ्य को दर्शाती मधुलिका पंकज के चित्र भी अपने पूर्वज कलाकारों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए प्रतीत हुए. दिल्ली के युवा चित्रकार अनुपम राय द्वारा कामनवेल्थ गेम के बहाने चलाई जा रही निर्माण योजनाओं में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों की जिन्दगी की विडंबनाओं पर बनाए गए चित्र एक तीखे कमेंट की तरह लगे.
बाजार की संस्कृति की तीखी आलोचना कन्दीर (कोलकाता) के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नाटक `टैलेंट हंट´ में थी, जो रियलिटी शो के खिलाफ था. आज लोक संस्कृति अपने शिल्प और प्रभाव में सत्ता और बाजार के सांस्कृतिक वर्चस्व को किस तरह चुनौती दे सकती है, इसकी बानगी देखने को मिली बंगाल से आई बाउल की टीम की प्रस्तुति के जरिए. जाति-संप्रदाय की बाड़ाबन्दियों को नकारती लालन फकीर के गीतों को बाउल कलाकारों ने जिस तरह पेश किया, वह अद्भुत था. लोकनृत्य का जादू फरी नृत्य में भी दिखा, जिसे जोगिया (कुशीनगर) के कलाकारों ने पेश किया. झारखण्ड संस्कृति मंच की महिला कलाकारों की टीम प्रेरणा द्वारा प्रस्तुत समूह नृत्य `जनी शिकार´ किया गया, जो आदिवासी प्रतिरोध की प्रथम नायिकाओं सिनगी-कैली देई के नेतृत्व में हुए संघर्ष की याद में किया जाता है.
सृजनोत्सव में बांग्ला, हिन्दी, उर्दू, पंजाबी की जनपक्षधर रचनाओं के साथ-साथ इन भाशाओं की बोलियों के साथ-साथ झारखण्ड की जनभाशाओं की रचनाओं और जनकला से भी लोग रूबरू हुए. पश्चिमी बंग गण परिषद के कलाकारों ने बांग्ला और हिन्दी जनगीत सुनाए.
एक सत्र हिन्दी कविता पर केन्द्रित था, जिसमें चर्चित कवि दिनेश कुमार ‘शुक्ल , शंभु बादल और रामाशंकर विद्रोही ने अपनी कविताओं का पाठ किया. दिनेश कुमार ‘शुक्ल की कविताओं ने जहां एक ओर मौजूदा साम्राज्यवादी-बाजारवादी संस्कृति द्वारा उत्पन्न संकटों के खिलाफ चेतना को जगाने का काम किया, वहीं उसने प्रगतिशील जनवादी कविता और लोककाव्य की सुदीर्घ परंपरा की ताकत का भी अहसास कराया. गोरख पाण्डेय की याद में लिखी गई कविता की पंक्तियों में वह जनता की ताकत के प्रति वह अभिनव आस्था दिखी, जिसके लिए दिनेश कुमार ‘शुक्ल मौजूदा हिन्दी कवियों में एक विशिश्ट स्थान रखते हैं- सो रहा संसार, पूंजी का विकट भ्रमजाल/ किन्तु फिर भी सर्जना के एक छोटे से नगर में/ जागता है एक नुक्कड़/ चिटकती चिंगारियां/ उठता धुंआ है/ सुलगता है एक लक्कड़/ तिलमिलाते लोग सुनकर, देखकर अन्याय/ और लड़ने का अब भी बनाते मन मछन्दर/ फिर नए संघर्ष का उन्वान लेकर/ जाग मेरे मन मछन्दर.
इतिहास में स्त्रियों के उत्पीड़न की लंबी दास्तान और उससे मुक्ति की आकांक्षा तथा धर्म के मिथ्या वजूद पर केन्द्रित रामाशंकर विद्रोही की लंबी कविताओं ने श्रोताओं को वैचारिक उत्तेजना से भर दिया. उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता नूर मियां का भी पाठ किया. वरिष्ठ कवि शंभु बादल ने अपनी छोटी-छोटी कविताओं में मेहनतकश जनता की जिन्दगी के संघर्ष, आकांक्षा और परिवर्तन के स्वप्न को अभिव्यक्ति दी.
जसम बेगूसराय की टीम रंगनायक द्वारा नागार्जुन की कविताओं पर केन्द्रित नाटक `हरिजन गाथा´ सृजनोत्सव की आखिरी प्रस्तुति था. इस मौके पर अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी, रंगनिर्देशक कुणाल, प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. सत्यजीत और जसम के राष्ट्रीय पार्षदों समेत कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी बतौर दशक आयोजन में मौजूद थे. भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य भी अपने व्यस्त दिनचर्या के बीच से समय निकालकर गजलों और बाउल की प्रस्तुति के दौरान मौजूद रहे. सृजनोत्सव का संचालन जन संस्कृति मंच के बिहार राज्य सचिव युवा संस्कृतिकर्मी सन्तोश झा ने किया.

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