Friday, March 21, 2008
मौलिकता के बदलते प्रतिमान
कभी-कभी बचकानी बहस बड़ी बहस में बदल जाती है। हिंदी ब्लॉग के लेखन या टिप्पणी से कई बने बनाए विचारों और विचारकों की इमेज बन बिगड़ रही है। नए सवाल चाहे जिस मजबूरी में अपने दौर में नहीं उठाए गए हों या उन पर सुनवाई नही हुई हो वह फिर से उठाए जा रहे हैं। हालांकि कई बार लग सकता है कि ये तो नए अनुभवों और विकास क्रम से कटकर बात चलाई जा रही है। मानने या न मानने की जिद फिर भी चलेगी। कुछ लोग सही संदर्भ में समझने की मांग उठा सकते हैं। यहां जिन सही संदर्भ की मांग होगी वो हिंदी ब्लॉग या किसी दस्तावेजी माध्यम के बजाय आचार-व्यवहार वाली जगहों पर ही ढूंढना बेहतर होगा।
जो भी हो आचार-व्यवहार को दर्शन से अलग करके देखने की धारा से लेकर टॉफ्लर के विचार के जरिए मौलिकता के छटपटाते हाथ ने एक बेहतरीन बहस को जन्म दिया है। हमारी कोशिश होगी कि बहस स्वस्थ रहे, लेकिन गलत या सही होने की प्रवृत्ति पर खुलकर बातें होंगी। यहां दार्शनिक से लेकर सामाजिक विचलन की सीमाओं को गाढ़े रंगों के साथ दिखाया जाएगा। हम व्यक्ति विशेष की हरकतों को ताक पर रखने की कोशिश करेंगे। इसी उम्मीद के साथ हम बहस में हस्तक्षेप कर रहे हैं।
-प्रसून
मौलिकता पर बहस शुरू हुई। जिसमें आरोप लगा कि एक विचारधारा विशेष लोगों को टाइप्ड बनाती हैं। अनुभवजनित बात को बहुत बड़े स्तर पर उठाया गया है। हालांकि यह सवाल, मनचाहे जवाब के आग्रह के साथ उठाया गया, लेकिन इस सवाल और जवाब के सिलसिले ने अर्थ, दर्शन, समाज विज्ञान की भूमिका पर भी सवाल खड़ा करना शुरू किया। इसमें एक विचारधारा को केंद्र में करके कही गई बात कुछ खास विचारों के समर्थन में कही गई है। अब इस पर लौटते हैं कि बात क्या है।
अनुभव के आधार पर टाइप्ड किस्म के लोगों की संख्या का हवाला देते हुए यह बताना कि मौजूद व्यवस्था किसी भी चीज को रेडिमेड बनाती है। वस्तुओं से पहले यह प्रक्रिया इंसानों में विकसित करने का दोष एक विचारधारा विशेष पर मढ़ा गया है(हम ज्ञान की संचयी अवधारणा को अगर बरकार रखें तो पाठकों को आसानी होगी और लेखक की इमानदारी और बढ़ेगी)। लेकिन थर्ड वेब के मशहूर लेखक अल्विन टॉफ्लर को जिसने भी पढ़ा होगा उसे छटपटाती मौलिकता की अपील थोड़े ठीक ढंग से समझ में आएगी। टॉफ्लर का अंतिम प्रायोजन संस्कृति के बायोलॉजिकल मॉडल के आधुनिक संस्करण तक जाना रहा है। बायोलॉजिकल मॉडल संस्कृति को बहुत स्थिर चीज मानकर चलता है। इस विचार के अनुसार संस्कृति का जो भी मॉडल है उसमें भाषा प्राथमिक महत्व की चीज है। इसी विचार से यह बात निकली कि हर भाषा बोलने वालों की अपनी एक अलग संस्कृति है। जिसे टॉफ्लर के टाइप्ड नुमा चश्मे ने सांस्कृतिक एकरूपता जैसी चीज को जन्म दे दिया। बाकी लेखकों ने भी कम्यूनिज्म के मामले में इस तर्क का पूरा प्रयोग किया है। खासकर नोबेल पुरस्कार वाले लेखकों ने। लेकिन अब यह साफ हो चुका है कि सास्कृति व्यवहार के अध्ययन का ये मॉडल नस्लवाद का घनघोर समर्थक है। जो कि विचारधारा विशेष को एक ठहराव में देखने की आदि हो जाती है वह बताना शुरू कर देती है कि फलां विचारधारा में मौलिकता नष्ट हो रही है।
आखिर ये नजरिया पैदा किस तरह से होता है। सबसे पहले रूप के स्तर पर बात शुरू होती है। लेकिन बायलॉजिकल मॉडल का सबसे असरदार हथियार भाषा रहा है। नए दौर का मॉडल भी भाषाई स्थिरता से ही अपनी बात शुरू करता है। क्योंकि यहां आलोचना एक विचारधारा को स्थापित होने से रोकने के एवज में शुरू की जाती है। रूपवादी विचारधारा का आधुनिक संस्करण तो थोड़ा और आगे बढ़ जाता है वह मानता ही नहीं कि कोई कला भी किसी विचार विशेष की वाहक हो सकती है।
इस बहस में एक बात ये उठ रही है व्यक्तिवाद को कम्यूनिस्ट विचारधारा ने खलनायक मान लिया है इसलिए मौलिकता का टोंटा पड़ गया। हालांकि जिन देशों में व्यक्तिवाद का आधुनिक रूप मौजूद है वह अपने सौदर्यबोध तक में विविधता नहीं ला पाए। विचारों की बात तो छोड़ दीजिए। लेकिन यहां बात केवल मौलिकता के बहस पर आकर नहीं टिकती। जैसा कि यह विचार मान रहा है कि कला और विज्ञान के विकास के लिए व्यक्तिवाद जरूरी है। यहां तक तो ठीक है लेकिन ये मांग दर्शन के खास दायरे में रहते हुए बहस की गुंजाइश ढूंढता है। ऐसा दर्शन जो आचार-व्यवहार से परे हो। आचार-व्यवहार से परे जाने की कोशिश का अर्थ हुआ कि दर्शन पर उस नजरिए से बहस करना जहां व्यक्तिवाद को पूजा जाता हो। ऐसे में फिर ज्ञानमीमांशीय स्वतंत्रता की मांग करनी होगी। इस कोशिश से यह बात सामने आती है कि कला और विज्ञान को भी परोक्ष तरीके से रूपवादी नजरिए से देखने की मांग कर बैठते हैं।
जॉन क्रो रैंन्सम की पुस्तक द न्यू क्रिटिसिज्म, जिसे दुनिया नई आलोचना वाले आंदोलन के स्रोत के रूप में देखती है, उसका खास जोर विचारधाराओं के आतंक से कला को मुक्त करने का रहा है। यह मौलिक बनाने की ऐसी मांग कर बैठती है जिसमें केवल रूप पर बहस के लिए जगह बचती है। इस स्कूल ने नारा तक दे दिया कि रिटर्न टू रेटरिक यानी अलंकार की ओर लौट चलो। अंतर्वस्तु से नहीं रुप से कला मौलिक बनती है।
हालांकि अपनी कविताओ पर विचार करते समय कुछ लेखक इसे नकार रहे है। वे कविता के निरपेक्ष स्वायत्तता की अपील को खारिज कर देते है। थोड़ा आगे बढ़कर कहें तो उन्हे अपनी कविता के मामले में मौलिकता की समस्या नहीं लगती।
लेकिन दूसरे पहलू से साहित्य, कला और विज्ञान के बारे में खलनायक व्यक्तिवाद की जरूरत क्यों पड़ रही है। हम साफ करते चलें कि व्यक्तिवाद ही अपने अंतिम निष्कर्षों में रूपवाद तक पहुंचता है। कला दर्शन में इस रूपवाद को पूरे साहित्य पर लागू कराने वाले मार्क शोरर के जरिए हम इसके लक्ष्य को ठीक से बता पाएं शोरर लिखते हैं कि (हडसन रिव्यू के मशहूर लेख टेक्निक एज डिस्कवरी के लेखक) “आधुनिक समीक्षा ने यह दिखा दिया है कि वस्तु की चर्चा करना कला की जरूरत नहीं बल्कि अनुभव की बात करना है..” अनुभव यानी आचार व्यवहार पर कला या साहित्य को तौलना कला की जरूरत नही हैं।
विज्ञान के विकास में व्यक्तिवाद की भूमिका पर भी बात उठी है। विज्ञान का विकास अनायास तो होता नहीं है। जरूरत के मुताबिक ही यह विकसित होता है। विज्ञान अपने मूल स्वरूप में समाजवादी इस नजरिए से होता है कि यह संचित ज्ञान पर आधारित होता है। जे डी बर्नाल के शब्दों में कहें तो “विज्ञान के अभिप्राय और मूल्य की अंतिम निर्णायक जनता होती है। लेकिन जहां विज्ञान को मुट्ठीभर लोगों के हाथों में रहस्य बनाकर रखा जाता है, वहां वह अनिवार्य रुप से शासक वर्ग के हितों से जुड़ जाता है। वह उस समझदारी और प्रेरणा से कट जाता है, जो जनता की आवश्यकताओं और क्षमताओं से पैदा होती है”।
शायद यही वजह है कि विज्ञान का विकास सबसे ज्यादा तब हुआ जब व्यक्तिवाद का केंद्र टूट रहा था।
कुल मिलाकर मौलिकता के आग्रह पर बात आकर टिकती है कि वह किस नजरिए से मौलिक होने का आग्रह लिए हुए विकसित होती है। उसकी मौलिकता हितों के संघर्ष में व्यक्ति के साथ खड़ा होता है या फिर समाज के साथ। (जारी..)
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
विचारणीय मुद्दा है, इस पर स्वस्थ बहस होनी चाहिए , लेकिन जहाँ बहसों का मतलब व्यक्तियों को शिकार बनाना हो और इस चक्कर में विचारधारा, संगठन और आन्दोलन सब शिकार बन जायें तो भी माथे पर शिकन न आए, वहां स्वस्थ बहस की उम्मीद कितनी कम है, इसे आप भी जानते होंगे।
बहुत उलझा हुआ है। लेख तो क्या, लेख का एक अक्षर भी समझ में नहीं आया। थोड़ा आसान लिखें। उद्धरण का उपयोग कम से कम करते हुए सीधे अपनी बात कहें तो ज्यादा कम्युनिकेट होगी।
जबरदस्त। आपसे यही उम्मीद थी और आज भी है कि आप किसी ईमानदार अनुभूति से उपजी बहस को ऐतिहासिक आयाम प्रदान करेंगे, सार्थक विस्तार देंगे। इंतज़ार है अगली कड़ी का। इससे पहले भी जाति व्यवस्था पर आपने अंबेडकर की बातों के संदर्भ में बड़े काम की बातें सामने रखी थीं।
शुक्रिया।
चंद्रभूषण जी, आपको समझ में सबसे ज्यादा आया है। और यह आपकी अपनी मौलिकता है जो समझने से इनकार कर रही है।
Post a Comment