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Tuesday, February 26, 2008

क्या सजातीय विवाह ही जाति का आधार है?




बाजार से सामाजिक न्याय की उम्मीद है। इस तर्क को प्रचारित करने वाले आज भी रोना रो रहे हैं कि महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की भागीदारी न के बराबर है। दरअसल दलितों के हक की लड़ाई एक ओर प्रगतिशील विचारधार के बदौलत लड़ी जा रही है और जबकि दूसरी ओर स्वघोषित चैंपियन दलित ब्राह्मणवादी विचारधारा के जरिए। उसके दाएं बाएं टुकड़ों में तर्क बटोरने के तौर तरीके ही खुद उसके अस्थिर और अध्यात्मवादी चिंतन के बीच खड़ा करते हैं। अपने पूरे कलेवर में यह मानव विकास विरोधी विचारधारा अंत में सामंती मूल्यों के सामने न केवल घुटने ही टेकती बल्कि खुलकर बताती है कि यही से दलित मुक्ति का रास्ता जाता है। मौजूदा दलित सत्ताओं के अनुपातवादी संघर्ष के साथ यह छद्म लड़ाई उनके आधारभूत सिद्धांतकारो में भी मौजूद है। अनुपातवादी चिंतन की बहस में लटकने की जद्दोजहद में उनके विचारक सिलसिलेवार ढंग से खुद की कही बातों का खंडन करते मिलते हैं। वे उस छद्म लड़ाई पर बहस नहीं करते बल्कि अभी अनुपात सही नहीं हुआ...वे ऐसे चौंकते हैं जैसे किसी दैव चमत्कार के जरिए यह होने वाला था। ये ऐसी छद्म लड़ाई है जिसमें कोई शहीद नहीं होता। सबकुछ सुविधाजनक तरीके से चलता है। यही वह मजबूरी है जो इन्हे आज बाजारवाद के साथ खड़ा कर रही है। कल को कोई और आस्थामूलक विचारधारा पैदा होती है तो फिर उसमें समा जाएंगे। इसलिए जरूरत है कि इस समझ के मूल सिद्दांतकारों की जड़ में जाकर देखा जाय कि क्या ये शुरू से ही ऐसे छद्म युद्ध लड़ते रहे हैं। देखते हैं कि जातियों के पैदा होने के बारे में अंबेडकर के विचार मैकाले के तर्क दिवस मनाने वालों के मुताबिक कितने तार्किक हैं।



जातियों के पैदा होने के बारे में मुख्यतौर पर दो राय बनती है। एक धारा कहती है कि कबीले के बचेखुचे लोग जातियों में बदल गए होंगे जबकि दूसरी धारा इसे श्रम विभाजन से जोड़ कर देखती है। खुद पेशों से ही जातियों का उदय हुआ हो। इस विचार को ही ज्यादातर लोग मानते हैं। लेकिन अंबेडकर इसे नहीं मानते। उनका सवाल है क्या सभी देशों में श्रम विभाजन नहीं हुआ फिर वर्ण व्यवस्था भारत में ही क्यों पैदा हुई। जवाब में तर्क दिया जाता है विशेष परिस्थितियों का जो जातियों के निर्माण तक ले जाती है। लेकिन विशेष परिस्थितियां क्या थी इस पर सवाल अनसुलझा छोड़ा गया। लेकिन झटके से अंबेडकर ने कहा कि वे उस विशेष परिस्थिति को समझ गए हैं। वे सजातीय विवाह को जाति व्यवस्था का मूल मानते हैं। देखिए क्या कहते हैं वे
“उद्भव का प्रश्न हमेशा खीझ पैदा करने वाला रहा है और जाति व्यवस्था के अध्ययन में इसपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। कुछ ने अपनी आंखे मूंद और कुछ न कन्नी काट ली। कुछ लोग अभी इस उहापोह में हैं कि क्या जाति जैसी चीज का कोई उद्भव हो सकता है जहां तक मेरा सवाल है मैं किसी उहापोह में नहीं हूं क्योंकि मैं यह सिद्ध कर चुका हुं कि सजातीय विवाह ही जाति का एकमात्र लक्षण है और जाति व्यवस्था के उद्भव से मेरा आशय यही है कि सजातीय विवाह पद्धति की संरचना और तंत्र का उद्भव” (खंड 1, पृ. 14)
अंत में की गई टिप्पणियों में कोई आपसी तालमेल नहीं है । एक जगह सजातीय विवाह ही कारण (मूल) है और ‘जाति’ इसका ‘प्रभाव’ है। यदि हम इस बात को इस रूप में देखें तो दोनों (सजातीय विवाह पद्धति और जाति व्यवस्था) समान नहीं है। लेकिन दूसर वाक्य में अंबेडकर का कहना है कि चाहे आप जाति व्यवस्था के उद्भव की बात करें या सजातीय विवाह पद्धति की संरचना और तंत्र के उद्भव की बात करें, दोनों का अर्थ एक है। यदि हम इस नजरिए से देखें तो जाति व्यवस्था और सजातीय विवाह पद्धति दोनों एक हैं। इन परस्पर असंगत विचारों में से हमें लेखक का कौन सा विचार ग्रहण करना चाहिए ?
अगर उनका यह कहना है कि सजातीय विवाह पद्धति ही जाति व्यवस्था का आधार है तो यह जाति का आधार ढूंढ लेने का दावा नहीं हो सकता। तब सवाल यह उठता है कि ठीक है, फिर सजातीय विवाह पद्धति का आधार क्या है? जब तक हम यह न जान लें तब तक समस्या नहीं सुलझ सकती।
यहां पर तो ऐसे कहा गया, लेकिन किसी और जगह अंबेडकर की जाति व्यवस्था की व्याख्या ‘चार वर्णों’ से आरंभ होती है।
(जारी..)

3 comments:

अनिल रघुराज said...

बहस को सही दिशा दी है। जारी रखें...

ghughutibasuti said...

हमारे तो परिवार में लगभग लगभग सभी विवाह जातीय व्यवस्था को तोड़ रहे हैं । यहाँ तक कि परिवार में नए आने वाले कुछ की जाति तो नाम से पता चल जाती है परन्तु जो दक्षिण भारतीय हैं उनकी पता नहीं चलती है , परन्तु हम कभी पूछते भी नहीं हैं । आशा है यही जातियों का अन्त करेगा ।
जहाँ तक सजातीय विवाह के प्रचलन की बात है , यदि हम मानते हैं कि जातियाँ कुछ विशेष व्यवसायों, कामों से जुड़ी थीं तो समझ सकते हैं कि एक कुम्भार ऐसी स्त्री से विवाह करना चाहेगा जिसे मिट्टी से परहेज ना हो, जो इस कार्य में उसकी सहायता कर सके । एक नट स्त्री का विवाह किसी ऐसे परिवार में किया जाता जहाँ उसे घर से बाहर निकलने के अवसर ना मिलें, एक वैद्य किसी वणिक स्त्री से विवाह करता तो वह वन वन भटक वनस्पतियाँ ना जुटाती और ना ही उन्हें ठीक से पीस उबाल पाती, तो बहुत समस्या हो जाती । इन्हें सुविधा के विवाह भी कह सकते हैं , व्यवहारिक होना भी कह सकते हैं । यह तब तक चलता रहा जब तक व्यवसाय वर्ण से जुड़े थे । अब यह चलन भी टूट रहा है । फिर कोई कारण ना रहेगा कि लोग सजातीय विवाह करें । जब युवा स्वयं विवाह करेंगे तो वे भी वही जीवन साथी चुनेंगे जो उनकी जीवन शैली के लिए सही बैठता हो । सजातीय विवाह और फिर जाति दोनों का ही जल्दी नहीं तो देर से अन्त हो जाएगा ।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

सही है। 'रोटी' और 'बेटी' के रिश्ते ही जाति-व्यवस्था के मूल आधार रहे हैं। शिक्षा, जागरूकता और प्रगतिशील चेतना के कारण 'रोटी' अब आधार के रूप में बची नहीं रह गई है, लेकिन 'बेटी' के ब्याह के लिए सजातीय वर का आग्रह नगण्य अपवादों को छोड़कर समाज में बदस्तूर जारी है। अख़बारों के मेट्रीमोनियल पेज इसके सबूत हैं।

जो सवर्ण लोग जातिगत आधार पर आरक्षण दिए जाने के संवैधानिक उपबंधों का विरोध करते हैं, कम से कम उन्हें तो अपने परिवारों की बेटियों की शादियां दलित और पिछड़े वर्गों के लड़कों के साथ करने की पहल करनी चाहिए। ऐसी शादियों से पैदा होने वाली अगली पीढ़ी के लिए आरक्षण का प्रावधान अप्रासंगिक हो जाएगा।