Sunday, December 9, 2007
त्रिलोचन शास्त्री नहीं रहे...
हिंदी की कविता उनकी जिनकी सांसो को आराम नहीं.. त्रिलोचन अब हमारे बीच नहीं रहे। जसम के पूर्व अध्यक्ष की मृत्यु पर हम मर्माहत है।
मित्रों, मैंने साथ तुम्हारा जब छोड़ा था
तब मैं हारा थका नहीं था, लेकिन मेरा
तन भूखा था मन भूखा था। तुम ने टेरा,
उत्तर मैं ने दिया नहीं तुम को : घोड़ा था
तेज़ तुम्हारा, तुम्हें ले उड़ा। मैं पैदल था,
विश्वासी था ‘‘सौरज धीरज तेहि रथ चाका।’’
जिस से विजयश्री मिलती है और पताका
ऊँचे फहराती है। मुझ में जितना बल था
अपनी राह चला। आँखों में रहे निराला,
मानदंड मानव के तन के मन के, तो भी
पीस परिस्थितियों ने डाला। सोचा, जो भी
हो, करुणा के मंचित स्वर का शीतल पाला
मन को हरा नहीं करता है। पहले खाना
मिला करे तो कठिन नहीं है बात बनाना।
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इतना तो बल दो
यदि मैं तुम्हें बुलाऊँ तो तुम भले न आओ
मेरे पास, परंतु मुझे इतना तो बल दो
समझ सकूँ यह, कहीं अकेले दो ही पल को
मुझको जब तब लख लेती हो। नीरव गाओ
प्राणों के वे गीत जिन्हें में दुहराता हूँ।
संध्या के गंभीर क्षणों में शुक्र अकेला
बुझती लाली पर हँसता है निशि का मेला
इस की किरणों में छाया-कम्पित पाता हूँ,
एकाकीपन हो तो जैसा इस तारे का
पाया जाता है वैसा हो। बास अनोखी
किसी फूल से उठती है, मादकता चोखी
भर जाती है, नीरव डंठल बेचारे का
पता किसे है, नामहीन किस जगह पड़ा है,
आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है।
सह जाओ आघात प्राण, नीरव सह जाओ
इसी तरह पाषाण अद्रि से गिरा करेंगे
कोमल-कोमल जीव सर्वदा घिरा करेंगे
कुचल जाएंगे और जाएंगे। मत रह जाओ
आश्रय सुख में लीन। उठो। उठ कर कह जाओ
प्राणों के संदेश, नहीं तो फिरा करेंगे
अन्य प्राण उद्विग्न, विपज्जल तिरा करेंगे
एकाकी। असहाय अश्रु में मत बह जाओ।
यह अनंत आकाश तुम्हे यदि कण जानेगा
तो अपना आसन्य तुम्हे कितने दिन देगा
यह वसुधा भी खिन्न दिखेगी, क्षण जानेगा
कोई नि:स्वक प्राण, तेज के कण गिन देगा
गणकों का संदोह, देह व्रण जानेगा
और शून्य प्रासाद बनाएगा चिन देगा
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भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझे था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को । जाकर पूछा
'भिक्षा से क्या मिलता है। 'जीवन।' 'क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं ।' 'दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा ।' 'मुझे आप से
ऎसी आशा न थी ।' 'आप ही कहें, क्या करूं,
खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं,
क्या अच्छा है ।' जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।
('उस जनपद का कवि हूं' नामक संग्रह से से लिया गया)
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प्राणों का गान
दर्शन हुए, पुनः दर्शन, फिर मिल कर बोले,
खोला मन का मौन, गान प्राणों का गाया,
एक दूसरे की स्वतन्त्र लहरों को पाया
अपनी अपनी सत्ता में, जैसे पर तोले
दो कपोत दाएँ, बाएँ स्थित उड़ते उड़ते
चले जा रहे दूर, क्षितिज के पार, हवा पर,
उसी तरह हम प्राणों के प्रवाह पर स्वर भर
लिख देते अपनी कांक्षाएँ। मुड़ते मुड़ते
पथ के मोड़ों पर, संतुलित पदों से चलते
और प्राणियों के प्रवेग की मौन परीक्षा
करते हैं इस लब्ध योग की सहज समीक्षा।
शक्ति बढ़ा देती है, नए स्वप्न हैं पलते।
विपुला पृथ्वी और सौर-मंडल यह सारा
आप्लावित है; दो लहरों की जीवन-धारा।
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आज मैं अकेला हूं
1)
आज मैं अकेला हूँ
अकेले रहा नहीं जाता।
(2)
जीवन मिला है यह
रतन मिला है यह
धूल में
कि
फूल में
मिला है
तो
मिला है यह
मोल-तोल इसका
अकेले कहा नहीं जाता
(3)
सुख आये दुख आये
दिन आये रात आये
फूल में
कि
धूल में
आये
जैसे
जब आये
सुख दुख एक भी
अकेले सहा नहीं जाता
(4)
चरण हैं चलता हूँ
चलता हूँ चलता हूँ
फूल में
कि
धूल में
चलता
मन
चलता हूँ
ओखी धार दिन की
अकेले बहा नहीं जाता।
जनमत संपादक मंडल के साथ त्रिलोचन की बातचीत सुनें...
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Dur. 29Min 43Sec
(साभार-इरफान)
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7 comments:
आशा, आप्टिनिज्म, उम्मीद उनके हाथ से कभी नहीं छूटी. वे जीवन से भरे हुए थे. देखिए खुद को अकेला कहने में भी उनको संकोच था. आखिरी कडी भी टूट गई उस त्रयी की जिसने हमे कविता के जरिए जीवन से प्रेम करना सिखाया था. फिर भी हम उदास नहीं हैं साथी. वे हमारे बीच रहेंगे. उनकी कविताएं ही बांची जाएं आज
अफ़सोस है। त्रिलोचनजी को विनम्र श्रद्धांजलि।
त्रिलोचन जी अवकाश के दिन चल दिए
बुझ गए या जल गए, दिए दिए गए
उनसे मिलने बातें करने या बनाने हम
सपनों में आंखों में भर लिए दिए गए।
सचिन जी, सिर्फ आज ही क्यों, सदैव क्यों नहीं ?
त्रिलोचन जी की कविताओं का जादू चल गया
चलता रहा है सदा
चलता रहेगा सदा
ऐसी है हम सबकी सदा.
त्रिलोचन जी के हम सदा आभारी रहेंगे. आप ने उन की इतनी सारी रचनाएँ पढ़वाईं, धन्यवाद
अरविंद कुमार
samantarkosh@gmail.com
त्रिलोचन जी का निधन का मतलब हिंदी के अंतिम वरिष्ठ प्रगतिशील का निधन तो है ही, प्रगतिशील चेतना का भी विराम है किन्तु वे हमेशा-हमेशा के लिए हिंदी संसार में पैठे मिलेंगे ।
www.srijangatha.com ने पिछले 1 दिसम्बर को उनपर केंद्रित विशेषांक की घोषणा की है । रचनाकार मित्रों से आमंत्रण भी देना चाहेंगे ।
बिल्कुल अविनाश जी हम गाते रहेंगे मनुष्यता के पक्ष का यह राग जो सीखा उन्ही त्रिलोचनों से जिन्होंने शमशेर की शक्ल में ली थी काल से होड
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