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Wednesday, February 27, 2008

जाति से पहले वर्ण!


जातियों से पहले वर्ण थे...चौकिए नहीं ये हम नहीं कहते बल्कि अंबेडकर कहते हैं.... खुद अंबेडकर के शब्दों में –
“हमें अच्छी तरह याद होगा कि हिंदु समाज दूसरे समाजों की तरह वर्गों से मिलकर बना था और उसमें 1) ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग 2) क्षत्रिय या सैन्य वर्ग 3) वैश्य या वणिक वर्ग 4) शूद्र या दस्तकार और दास वर्ग जैसे ज्ञात वर्ग थे। इस तथ्य की ओर विशेष रुप से ध्यान देना होगा कि यह अनिवार्यत: एक ऐसी वर्ग-व्यवस्था थी जिसके तहत योग्यता के अनुसार लोग अपना वर्ग बदल सकते थे, और इसलिए वर्गों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी”। खंड 1, पृ. 18)
यहां ‘वर्गों’ से आशय उन ‘वर्गों’ से नहीं है जो “श्रम के शोषण की वजह से बनते हैं”। बोलचाल की भाषा में समाज के विभिन्न हिस्सों को “वर्ग” ही कह देते हैं। अंबेडकर ठीक इसी अर्थ में यहां पर “वर्णों” के संदर्भ में “वर्गों” का जिक्र कर रहे हैं।
अंबेडकर की व्याख्या के मुताबिक हमें चार वर्णों के निम्न पक्षों पर ज्यादा ध्यान देना होगा।
1)- वे अभी जातियां नहीं है। जातियां अभी भी नहीं बनी हैं। ये महज प्रारंभिक ज्ञात वर्ग हैं।
2)- ये व्यवसाय के आधार पर बने हैं। इन वर्गों के चार अलग-अलग किस्म के व्यवसाय हैं।
3)-इन वर्गों के लोग किसी भी तरफ जाकर अपने वर्ग बदल सकते हैं। जो कोई एक व्यक्ति शुद्र रहा हो तो वह अपनी योग्यता को सुधारकर ब्राह्मण या किसी दूसरे वर्ग में शामिल हो सकता है। यदि ब्राह्मण या किसी दूसरे वर्ग के लोगों में योग्यता की कमी हुई तो वह शुद्र हो जाएगा।
4)-ये ही भारत के वे चार वर्ण है जिन्हे अंबेडकर ने उन “समूहों” के रूप में समझा जो मिल-खपकर “एकीकृत समाज” हो गए थे। इस तथ्य के बावजूद कि एक समूह पुरोहित वर्ग के रूप में और दूसरा दास वर्ग के रूप में मौजूद था, उन्होने समूहों के सम्मीलन और स्वांगीकरण की बात कही। आगे भी उन्होने उन्ही चार वर्णों के सिलसिले में अंतरजातीय विवाहों की बात कही जो अलग-अलग वर्णों के बीच होते थे।
हमें अंबेडकर को समझने के लिए कुछ खास बिंदुओं को याद रखना होगा।
वर्ण व्यवस्था जाति –व्यवस्था में रुपांतरित हो जाता है। लेकिन अंबेडकर के अनुसार वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था से काफी श्रेष्ठ है क्योंकि वर्ण-व्यवस्था में कोई व्यक्ति अपना वर्ण बदल सकता था।
पहले, योग्यता के आधार पर लोगों के किसी ओर भी वर्ण बदल सकने के मुद्दे पर चर्चा करेत हैं। यदि लोग अपना वर्ण बदलना चाहते थे तो योग्यताओं का निर्धारण कौन करता था ? वे कौन-सी योग्यताएं हैं? यह प्रक्रिया अमल में कैसे आएगी?
अंबेडकर बताते हैं कि ऐसे निर्णय लेने का अधिकार मनु और सप्तर्षि को था जो चार वर्ष में एक बार लोगों की परीक्षा लेते थे और उनका वर्ण निर्धारित करते थे। ऐसा बताते समय अंबेडकर परिवर्तन की इस प्रक्रिया का खुलासा कुछ इस तरह करते हैं-

“ ये ही वे अवस्थाएं थी जिसमें वर्ण जाति में बदल गया। इस अवधारणा को उन परंपराओं से काफी बल मिलता है जो धार्मिक साहित्य में अंकित है। जब किसी ऐसी चीज को अंगीभूत किया जा सकता है जो बिल्कुल भरोसेमंद हो, तो ऐसा कोई कारण नहीं कि इस परंपर को न अपनाया जाए। इस परंपरा के अनुसार किसी व्यक्ति का वर्ण निर्धारित करने के कार्य का संपादन मनु एवं सप्तर्षि के पदनाम वाले अधिकारियों की मंडली द्वारा किया जाता था। लोगों के समूह से मनु उन लोगों का चयन करते जो क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए योग्य होते और सप्तर्षि उन लोगों का चयन करते जो ब्राह्मण होने के योग्य होते। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों के लिए मनु और सप्तर्षि द्वारा किए गए चयन के बाद जो लोग बच जाते वे शुद्र कहलाते थे। प्रत्येक चार वर्ष पर नए चयन के लिए मनु एवं सप्तर्षि के उसी पदनाम वाले अधिकारियों की नई मंडली लगाई जाती थी। होता यह था कि पिछली बार जो शुद्र की श्रेणी में रह जाते थे उनमें से कुछ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए चुन लिए जाते थे जबकि पिछली बार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे उनमें से कुछ को केवल शूद्र के योग्य पाकर छोड़ दिया जाता था। इस प्रकार वर्ण के कार्मिक बदल जाते थे। यह एक तरह का आवर्ती उलट-फेर औऱ मनुष्यों के मानसिक रुझान व शारीरिक क्षमता और पेशों के अनुरूप उनका चुनाव था जो समुदाय जो समुदाय को जिंदा रखने के लिए आवश्यक था...। प्राचीन परंपरा के अनुसार जैसा कि पुराणों में दर्ज है, मनु एवं सप्तर्षि किसी व्यक्ति के वर्ण की जो अवधि तय करते थे, वह चार वर्ष की होती थी और यह युग कहलाता था”। खंड 3, पृ. 267-287

“ मनु एव सप्तर्षि एक तरह से साक्षात्कार मंडल के सदस्य होते थे जो इस आधार पर व्यक्ति का वर्ण तय करते थे कि उसने साक्षात्कार में अपनी कैसी छाप छोड़ी है ? “ खंड 3, पृ. 287

इस तरह लंबी चौड़ी व्याख्या चलती रहती है जो यह बताती है कि योग्यता के आधार पर व्यक्तियों के वर्णों निर्धारण की जो व्यवस्था अधिकारियों द्वारा की जाती है, वह श्रेष्ठ क्यों है।
यह तो ठीक है, लेकिन उन अधिकारियों का चयन कौन करता था? वे योग्यताएं क्या हैं जिनके आधार पर वे अधिकारी बनते थे? चार साल में वर्ण बदलने की बात किसे पचेगी? मानलीजिए कि किसी खास युग सभी लोगों की अच्छी योग्यता है और कोई शुद्र न बने फिर क्या होगा? क्या चार साल बिना शुद्रों के ही काम चलेगा?इस अवधि में उच्च वर्णों की सेवा-टहल का काम कौन करेगा? क्या उच्च वर्ण वाले लोग अपना काम खुद करेंगे? नहीं, वे ऐसा नहीं करेंगे। शुद्रों को आखिरी सांस तक ताबेदारी करने के लिए अस्तित्व में बने रहना होगा। इसका अर्थ यह होता है कि आबादी के एख हिस्से को हमेशा शुद्रों के रूप में मौजूद रहना होगा।
अधिकारियों द्वारा हर व्यक्ति का साक्षात्कार करना और उनका वर्ण बदलना। इसी हिसाब से लोगों का पुराना वर्ण छोड़कर नया वर्ण अपनाना! मतलब यह कि पुराना पेशा छोड़कर नया पेशा अपनाना ! यानी हर चार साल बाद पेशा बदलना! यह किस किस्म का सिद्धांत है ?
अगर कोई इन पौराणिक कथाओं को शब्दश: मान ले कि ब्राह्मण शूद्र बन जाते थे और शूद्र ब्राह्मण, और यह कहे कि अतीत में भारत के लोगों के इतिहास में ऐसा ही हुआ है, तो क्या हमें ऐसे सिद्धांत को स्वीकार करना होगा।

आगे चलकर वर्ण निर्धारण की प्रक्रिया में कुछ बदलाव हुआ। फिर पुरानी प्रक्रिया को अंबेडकर भोंड़ा बताते हुए और नई प्रक्रिया का बखान करते हैं और कहते हैं कि वर्णों का निर्धारण गुरुकुल के उपनयन संस्कार में होता था...(जारी)

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