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Monday, February 25, 2008

दलित उद्धारकों का प्रपंच

-अभिनव


-हकीकत तो यह है कि अमेरिका आज सिर्फ एक देश नहीं, एक विचार है। यह विचार साइंस, टेक्नॉलजी, संपदा, पूंजी प्रवाह और भविष्य को मिलाकर बनता है। क्या एक अरब लोगों का देश भारत इस विचार से खुद को दूर रखने का जोखिम उठा सकता है?

- चंद्रभान प्रसाद,नवभारत टाइम्स, नवबंर 2007

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-“जो देश अंग्रेजी से जितना दूर होगा, वह देश तरक्की से भी उतना ही दूर रहेगा। जो बात देशों के लिए सच है, वही व्यक्ति या परिवारों के लिए भी सच है। भारत में ही देख लें। कुछ लड़कियां अच्छा डांस करती हैं, अच्छा गाती हैं, आकर्षक भी हैं पर अंग्रेजी नहीं जानती, अत: ‘बार बालाएं’ बन जाती हैं, पुलिस की दबिश होती है, जेल भी जाना पड़ता है, पर, उन्हीं गुणों के साथ कुछ लड़कियां आइटम गर्ल बन जाती हैं, पेशा, इज्जत तथा शोहरत भी कमाती हैं”।

–चंद्रभान प्रसाद, जनवरी, राष्ट्रीय सहारा

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"मैकाले पुराण इस समय छेड़ने की वजह अक्टूबर महीने में यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया से मेरे पास आया एक निमंत्रण है। निमंत्रण एक पार्टीनुमा कार्यक्रम में शामिल होने का था। कार्यक्रम 26 अक्टूबर के लिए था। ये पढ़कर मैं चौंका कि ये निमंत्रण मैकाले का जन्मदिन मनाने के लिए किया जा रहा है। इसे डे ऑफ रिजन यानी तर्क-दिवस नाम दिया गया था। कार्यक्रम मैकाले के जन्मदिन के एक दिन बाद के लिए था। निमंत्रण में ये साफ लिखा था कि इसमें फिलाडेल्फिया की कंपनी टेंपसॉल्यूशंस के मालिक माइकल थेवर भी शामिल होंगे। माइकल थेवर मुंबई के स्लम में बड़े हुए और और अब वो अमेरिका में अफर्मेटिव एक्शन के चैंपियन हैं।"- दिलीप मंडल


दिलीप मंडल भले अफसोस कर रहे हों लेकिन चंद्रभान प्रसाद जी के नेतृत्व में मैकाले के जन्म दिन के आयोजन ने काफ़ी लोगों के चौंकाया है। इस आयोजन में अंग्रेज़ी-माता का देवी रूप में पोस्टर जारी किया गया, स्तुतियाँ गाई गईं। यह कामना की गई कि हर दलित नवजात बच्चा पहली ध्वनि-एबीसीडी की सुने। अंग्रेज़ी-माता या देवी की तसवीर स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी का अनुकरण थी सिर्फ़ उसके हाथों में मशाल की जगह कलम थी। दिलीप मंडल ने भी ऐसे ही किसी आयोजन में बुलावे का जिक्र करते हुए अंबेडकर तक बहस ले गए।
हमारे यहां एक ग्रुप है जो अंग्रेजी भाषा भले न जानता हो लेकिन उसका जोरदार समर्थक है। इस छद्म भाषा प्रेम की कलई अब खुलने लगी है। समाज में बाजार के दर्शन को प्रचारित करने का काम मिशिनरी स्तर पर है। जिसमें अंग्रेजी की वकालत तो होती है लेकिन डार्विन की निंदी भी की जाती है। हिंदी ब्लॉग भी पिछले कुछ दिनों से मैकाले के स्टेमेंट के ऐतिहासिक साक्ष्य जुटा रहे हैं। जो लेख 2004 में चंद्रभान प्रसाद रिइन्वेंटिंग मैकाले में लिखते हैं वह अब हिंदी ब्लॉग में किसी और के नाम से फिर से आ रहा है। अंग्रेजी वकालत का पूरा नाटक सचेत तरीके से चलाया जाता है। पहले जब लोग कहते थे कि बस आफिरमेटिव एक्शन पर एक शोध प्रबंध जैसा कहीं छपा लो तो अमेरिका में स्कॉलरशिप मिल जाएगी तो यकीन नही होता था। आज अमेरिकी सरकार आफिरमेटिव एक्शन और एड्स पर समान रूप से खर्च करती है। आज भारत सहित दुनिया के कई देशों में बाजारवाद को कड़ी चुनौती मिल रही है। लिहाजा उसे एक दलालनुमा बड़ा हिस्सा चाहिए जो उसकी खोखली चमक में मंत्रमुग्ध होकर प्रवचन करता फिरे। इसके लिए सोशलिस्टों की नई फौज बड़ी आसानी से ये काम कर रही है। आज अमेरिका के दोस्त इजरायल या नॉटो सदस्य देशों को अंग्रेजी सीखने की जितनी दरकार नहीं है उतनी चंद्रभान प्रसाद और उनके चेलों की है। ये मानते हैं कि ग्लोबलाइजेशन के जरिए ही जाति व्यवस्था खत्म होगी। अब इन्हे कौन बताए कि पिछले दस-पंद्रह सालों से ग्लोबलजाइशेन के विकास के साथ दुनिया भर में दर्जनों देश जातिगत आधार पर निर्मित हुए हैं।
(जारी....)

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