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Friday, November 16, 2007

जेएनयू में दुमछल्ला वामपंथ की हार


सीपीएम और सीपीआई के लिए युवाओं के बीच अपनी राजनीति का बचाव करना मुश्किल हो रहा है। जेएनयू के छात्र संगठन चुनाव का इस मायने में राष्ट्रीय महत्व है। गुलाबी वामपंथ के समझौता परस्त नीतियों की शिकस्त वामपंथ की एक नई धारा की ओर इशारा है।
-दिलीप मंडल

अरावली पहाड़ियों की तलहटी पर घने पेड़ों के बीच बने जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में एक नई हलचल है। जेएनयू को भारत में युवाओं के मूड का आईना कभी नहीं माना जाता है। और ये ठीक भी है। पूरे देश के छात्रों का प्रतिनिधित्व जेएनयू नहीं करता। दिल्ली के ही दूसरे विश्वविद्यालयों का मिजाज यहां से अलग है। लेकिन देश के बौद्धिक समाज में जेएनयू की घटनाओं को हमेशा गं�¤­ीरता से लिया जाता रहा है। जेएनयू आखिर देश के बौद्धिकों का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है और इसकी पहचान आईएएस और आईपीएस अफसर बनाने वाली फैक्ट्री के अलावा , सोचने समझने वाले युवाओं के केंद्र के तौर पर ही रही है। यहां के छात्रसंघ चुनाव दूसरे कई विश्वविद्यालयों से अलग, व्यक्तित्व की जगह मुद्दों के आधार पर लड़े जाते हैं। जेएनयू दरअसल भारतीय राजनीति में विरोध और प्रतिरोध की ताकतों का केंद्र रहा है , इसलिए कांग्रेस के छात्र संगठन न एनएसयूआई को यहां कोई नहीं पूछता। केंद्र में जब बीजीपी की सरकार थी तब भी यहां एबीवीपी आम तौर पर हाशिए पर ही रही।
जेएनयू में छात्र संघ चुनाव नतीजों में कुछ ऐसा हुआ, जो पहले कभी नहीं हुआ था। चुनाव में ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन यानी आईसा के प्रतिनिधि अध्यक्ष, उपाध्यक्ष , महासचिव और संयुक्त सचिव यानी सभी चार पदों पर जीत गए। आईसा एक वामपंथी छात्र संगठन है जो वैचारिक रूप से सीपीआई (एमएल) लिबरेशन से जुड़ा है। लिबरेशन को अतिवामपंथी यानी नक्सली संगठन कहा जाता है , लेकिन हाल के वर्षों में इसने चुनाव में भी हिस्सेदारी की है।
इस चुनाव में दूसरी अभूतपूर्व बात ये हुई कि सीपीएम-सीपीआई से जुड़े छात्र संगटनों एसएफआई-एआईएसएफ के प्रतिनिधि न सिर्फ चारों पदों पर हार गए, बल्कि अध्यक्ष और महामंत्री के महत्वपूर्ण पदों पर वो तीसरे नंबर पर चले गए। जेएनयू में अलग अलग समय में अलग अलग विचारों, और बिना विचारों वाले छात्र संगठन प्रभावशाली रहे हैं- कभी समाजवादी, तो कभी फ्री थिंकर्स का वहां असर रहा। लेकिन अध्यक्ष और महासचिव के मुकाबले में एसएफआई न हो, ये पहले कभी नहीं हुआ। इन चुनावों की तीसरी महचत्वपूर्ण बात रही - आरक्षण विरोधी छात्रों के समूह यूथ फॉर इक्वालिटी की मजबूत उपस्थित। आईसा को दरअसल टक्कर यूथ फॉर इक्वालिटी से ही मिली।
इन चुनाव नतीजों का मतलब खासकर वामपंथी राजनीति के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। जेएनयू के चुनावों के मुद्दों को देखें तो इस बार यूपीए सरकार की आर्थिक नीति, स्पेशल इकॉनॉमिक जोन और सिंगुर -नंदीग्राम की घटनाएं, देश की विदेश नीति, खासकर अमेरिकी-भारत संबंध और परमाणु समझौता, शिक्षा के निजीकरण की कोशिश , शिक्षा संस्थानों में आरक्षण जैसे मुद्दे छाए रहे। इन मुद्दों पर हुए चुनाव में एसएफआई-एआईएसएफ की हार को आप इन मुद्दों पर सीपीएम-सीपीआई की उलझन और उसकी कमजोरी के नतीजे के तौर पर देख सकते हैं। दरअसल इन पार्टियों के संग�¤ नों के लिए छात्रों के बीच अब खुद को विरोध या प्रतिरोध की शक्ति के रूप में पेश कर पाना मुश्किल हो रहा है। इस मायने में जेएनयू भारतीय राजनीति का ही आईना साबित हो रहा है। राष्ट्रीय राजनीति में विरोध का पक्ष बनने की कोशिश में जिस तरह वाममोर्चा के पांव उलझ रहे हैं , वैसा ही जेनयू में ही हुआ।
यूपीए सरकार का दो-तिहाई कार्यकाल खत्म होने के बाद सीपीएम-सीपीआई को अब केंद्र सरकार में कई खामियां दिखने लगी हैं। विदेश नीति पर कदम दर कदम चलते हुए हमारी सरकार अमेरिका के बेहद करीब पहुंच चुकी है। अमेरिका के साथ भारतीय सेना के तीन दर्जन से ज्यादा साझा अभ्यास हो चुके हैं। अमेरिकी सरकार भारत को एशिया में अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी के तौर पर देखती है। अमेरिका को खुश करने के लिए भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में दो बार ईरान के खिलाफ वोट डाल चुकी है। इराक में अमेरिकी हमले की भारत ने इसी वजह से निंदा भी नहीं की। हम इजराएली सैनिक साजो-सामान के बड़े खरीददार बन चुके हैं। ये सब उस सरकार ने किया, जो वाममोर्चा के समर्थन के बगैर चल ही नहीं सकती। अब परमाणु समझौते पर विपक्ष की भूमिका अपनाकर वाममोर्चा अगर उस अतीत से छुटकारा पाना चाहती है तो ये संभव नहीं है। जेएनयू चुनाव के दौरान हुई बहस में एसएफआई -एआईएसएफ के प्रतिनिधि इस विषय पर अपना बचाव नहीं कर पाए।
आर्थिक नीतियों के सवाल पर भी एसएफआई-एआईएसएफ बचाव की मुद्रा में रहे। आर्थिक नीतियों पर अमल के मामले में कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच दूरी मिट चुकी है। बल्कि सिंगुर और नंदीग्राम का अनुभव बताता है कि आर्थिक नीतियों के सवाल पर वाममोर्चा कांग्रेस से कहीं अधिक आक्रामक है। स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा के निजीकरण से लेकर जनवितरण प्रणाली को कमजोर और फिर खत्म कर देने में कांग्रेस और वाममोर्चा की सरकारों में लोगों का अनुभव अलग अलग नहीं है। ऐसे में छात्र सिर्फ इसलिए किसी संगठन को वोट नहीं डाल देंगे,कि वो खुद को वामपंथी कहते हैं। जेएनयू में भी ठीक यही हुआ है। वहां के चुनाव में प्रतिरोध का पक्ष आईसा ने रखा और परंपरा के मुताबिक प्रतिरोध की सबसे मजबूत दिख रही आवाज के साथ जेएनयू के छात्रों ने अपना सुर मिलाया।
कुछ ऐसा ही यूथ फॉर इक्वालिटी और एबीवीपी के मामले में भी हुआ। शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के विरोध में सामने आई सवर्ण प्रतिक्रिया से जन्मी यूथ फॉर इक्वालिटी जेएनयू कैंपस में एक मजबूत ताकत बनकर उभरी है। खासकर साइंस के छात्रों में इसका अच्छा प्रभाव है। आरक्षण विरोधी बातें तो एबीवीपी भी घुमाफिराकर करती है। लेकिन जिन छात्रों को आरक्षण से एतराज है उन्होंने घुमाफिरा कर बातें करने वालों के मुकाबले आरक्षण का खुलकर विरोध करने वाले संगठन यूथ फॉर इक्वालिटी को अपना माना। ये बात भी महत्वपूर्ण है कि आर्थिक मुद्दों पर यूथ फॉर इक्वालिटी एबीवीपी, एनएसयूआई आदि में कोई फर्क नहीं रहा। साथ ही, एवीबीपी का कैंपस में घटता असर इस ओर भी संकेत कर रहा है कि पढ़े लिखे युवाओं में सांप्रदायिकता की राजनीति को चाहने वाले कम हैं। किसी सांप्रदायिक मुद्दे पर सामाज में ध्रुवीकरण न हो तो ऐसी राजनीति कैंपस में भी नहीं चलती।
कुल मिलाकर जेएनयू में एक ओर यूथ फॉर इक्वालिटी के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण की समर्थक और सामाजिक न्याय का विरोध करने वाली ताकतें थी और दूसरी ओर आईसा था जो आर्थिक मुद्दे और विदेश नीति के सवाल पर देश की स्वतंत्र हैसियत की बात कर रहा था और सामाजिक न्याय के पक्ष में मजबूती से डटा था। जेएनयू में ये लड़ाई इस साल आईसा ने जीत ली है। और इन सबके बीच एसएफआई -एआईएसएफ, एबीवीपी और एनएसयूआई जैसे संग�¤ न निरर्थक हो गए।

2 comments:

खुश said...

आप लोग खुश हो लीजिए और भाजपा की तरह आप भी नई परिभाषाएं गढ़िये। बधाई। जब भाजपा देश में पहली बार मजबूत हुई तो उसने सूडो सेकुलर (छदम धर्म निरपेक्ष) गढ़ा और आप इस बार जेएनयू में जीत गए तो दुमछल्ला वामपंथ निकाल दिया। दरअसल, हमारे यहां के कम्युनिस्टों और भाजपाइयों के तौर-तरीके एक जैसे ही हैं। इस देश को कम्युनिस्टों से बहुत उम्मीद थी लेकिन दुमछल्ले हों या छल्ले सबने धोखेबाजी की। नहीं तो 1952 में संसद में प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत रखने वाले कम्युनिस्टों की आज यह हालत नहीं होती। एक-दूसरे को गरियाते रहिए। आप लोगों को एबीवीपी की हार अपनी उपलब्धि नहीं लगती बल्कि सीपीएम व सीपीआई की हार उपलब्धि लगती है।
आप तो अपने को सही कम्युनिस्ट कहते हैं, लेकिन भाईसाहब कभी अपने गिरेबान में भी झांका कीजिए। ऐसे ही लाल-पीले-हरे-नीले मत होइए। आप सब हैं एक ही थैली के चट्टे-बट्टे।
मैने तो किन्ही अनिल रघुराज के ब्लाग एक हिंदुस्तानी की डायरी पर मानस की कथा पढ़ी और मुझे अपने गांव की कहावत जिसकी पूंछ उठाओ वही मादा याद आ गई। (इस कहावत को आप लोग जेंडर इश्यू मत बनाइएगा, मैं इस कहावत को सिर्फ इसलिए कोट कर रहा हूं जिससे संप्रेषण सटीक रहे। वैसे आप लोगों का क्या भरोसा इस कहावत के ही छल्ले बनाकर उड़ाने लगें)

Anonymous said...

साहब सबसे पहले आपको बता दिया जाय कि ये आपके गांव की कहावत नहीं है ये धुमिल की कविता का हिस्सा है...बहरहाल अगर हिटलर भी अपनी पार्टी का नाम सोशलिस्ट रखा तो इससे ये मानलिया जाय कि वह समाजवादी व्यवस्था में यकीन करता था। केवल कंम्यूनिस्ट होने से आपकी गलतियां और हार को सैलिब्रेट न किया जाय ये कैसे हो सकता है। सवाल वामपंथी पार्टी के प्राथमिकताओं का है। यह शुद्ध राजनीतिक लड़ाई है और इसमें मुद्दे के साथ रणनीति भी खुलकर सामने आती है। रही बात परिभाषाओं की तो उस पर मत बात करिए वो आपके बस की बात नहीं है। अभी तक सीपीएम अपनी प्राथमिकता ही नहीं तय कर पाई कि उसे क्रांति के जरिए बदलाव लाना है या दुमछल्ला बनकर। ऐसे में सही पार्टी की ओर लोग रूख करेंगे। अब विलोपवाद और उसके गुर्गों की नहीं चलने वाली एक बार फिर से दुनिया नकली कंम्यूनिस्टों को भगाने लगी है। कोई गुफा तलाश लीजिए....