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Thursday, October 29, 2009

चौथा खंभा भी गया


-पी साईनाथ
सी राम पंडित अब अखबार का साप्ताहिक कॉलम लिख सकते हैं। डॉ पंडित (बदला हुआ नाम) अर्से से महाराष्ट्र से निकलने वाले भारतीय भाषा के प्रतिष्ठित अखबार में कॉलम लिखते आए हैं। लेकिन महाराष्ट्र चुनाव में नामांकन वापस लेने की अंतिम तारीख के बाद उनका कॉलम बंद कर दिया गया था। अखबार के संपादक ने उनसे माफी मांगते हुए कहा कि पंडी जी आपका कॉलम अब 13 अक्टूबर से ही छप पाएगा। ऐसा इसलिए कि तब तक के लिए हमारे अखबार का हर पन्ना बिक चुका है। अखबार का संपादक व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार था सो उसने सच्चाई बयां कर दी।
महाराष्ट्र के चुनाव में पैसे का खेल जमकर खेला गया और थैलीशाही की परंपरा को मीडिया ने इस बार थोड़ा बढ़ चढ़कर निर्वाह किया। सभी भले न शामिल हो लेकिन कुछ ने तो हद ही कर दी। छुटभैये अखबारों को तो छोड़िए बड़े अखबारों और टीवी चैनल्स भी इस खेल में शामिल पाए गए। कई उम्मीदवारों ने ‘उगाही’ की शिकायत की, लेकिन पुरजोर तरीके से नहीं। वे सूचना उगलने वाले ड्रैगनों से डर गए। पता नहीं कब किस मौके पर आग बरसाना शुरू कर दें।
कई वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों को प्रबंधन के सामने शर्मसार होना पड़ा। एक ने तो गुस्से में यहां तक कह डाला कि “इस चुनाव का सबसे बड़ा विजेता मीडिया है”। दूसरे ने कहा “मीडिया इस चुनावी मौसम में मंदी से हुए नुकसान की भरपाई कर रही है”। माना जा रहा है कि न्यूज के नाम पर उम्मीदवारों के प्रचार से करोड़ों रूपए कमाए गए। विज्ञापन से इतना पैसा कमाना मुश्किल ही नहीं असंभव होता।
विधान सभा के चुनाव में “कवरेज पैकेजेज’ वाली संस्कृति पूरे महाराष्ट्र में दिखी। छोटे से छोटे कवरेज के लिए उम्मीदवारों को थैली खोलनी पड़ी। जो मुद्दा सामने आना चाहिए था वो बिल्कुल नहीं आया। पैसा नहीं तो खबर नहीं। लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान उन छोटी पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों को उठाना पड़ा जिनके पास ‘खबरों’ के लिए पैसे नहीं थे। जमीनी मुद्दों को उठाने के बावजूद दर्शकों और पाठकों ने उन्हे नजरंदाज कर दिया। ‘हिंदु’ (7 अप्रैल 2009) ने ऐसी ही एक रिपोर्ट लोकसभा चुनावों पर भी छापी थी। जब कुछ मीडिया हाउस ने बकायदा 15 लाख से 20 लाख रु रेट वाला ‘कवरेज पैकेज’ बनाया था। हाई एंड उम्मीदवारों के लिए ये रेट थोड़ा और ज्यादा था।
कुछ संपादकों का कहना है कि ये नया नहीं है। बस इसका दायरा और बढ़ गया है। दोनों ओर से की जा रही थेथरई या सीनाजोरी अब एक खतरनाक रूप धारण कर रही है। गिने-चुने पत्रकारों के पैसे लेकर खबर बनाने की कला अब मीडिया हाउसेज ने पकड़ ली है। ‘खबरों’ का ये संगठित कारोबार कई सौ करोड़ रु तक पहुंच गया है। पश्चिम महाराष्ट्र के एक बागी उम्मीदवार ने एक स्थानीय मीडिया के संपादक पर 1 करोड़ रु खर्च किया और वह जीत गया जबकि उसकी पार्टी के आधिकारीक उम्मीदवार हार गए।
महाराष्ट्र चुनाव में ऐसी डील का रेंज काफी बड़ा था। इसमें कई अलग-अलग कटेग्री और रेट थे। उम्मीदवार का प्रोफाइल करना है या इंटरव्यू या फिर उसके एचिवमेंट गिनाने हैं। कॉलम और समय के हिसाब से रेट लगे। इसमें उम्मीदवारों का कुछ घंटे या दिन भर पिछा करने वाले टेलीविजन प्रोग्राम भी शामिल थे। जिसे कई बार ‘लाइव कवरेज’ या ‘स्पेशल फोकस’ जैसे कटेग्री के साथ परोसा गया। विरोधी उम्मीदवार की बुराई और पैसा देने वाले उम्मीदवार के आपराधिक रिकॉर्ड को छुपाने का रेट भी लगा। यानी हर संस्कृति की अलग कीमत। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि महाराष्ट्र के 50 परसेंट चुने गए उम्मीदवार के नाम किसी न किसी आपराधिक रिकॉर्ड में दर्ज हैं। लेकिन इनमें से जितने उम्मीदवारों की प्रोफाइल मीडिया में आई है उसमें शायद ही किसी के आपराधिक रिकॉर्ड का जिक्र किया गया।
अखबार के मुकुट पर विज्ञापन और भीतर उम्मीदवार के यशगान वाले ‘स्पेशल सप्लिमेंट’ तो रेट के मामले में सभी कटेग्री को पीछे छोड़ गया। ‘स्पेशल सप्लिमेंट’ रेट था डेढ़ करोड़ रु । केवल एक मीडिया प्रोडक्ट पर किया गया ये खर्च उम्मीदवारों के खर्च की तय सीमा से 15 गुना अधिक है।
महाराष्ट्र में जो सबसे सस्ता और कॉमन लो एंड पकैज का रेट था चार लाख रु । यह पेज के हिसाब से कम ज्यादा भी हुआ। इस पैकेज में उम्मीदवार की प्रोफाइल, उम्मीदवार के पसंद वाले चार न्यूज आईटम शामिल थे। (उम्मीदवार के दिए न्यूज आईटम को ढंग से ड्रॉफ्ट करने का रेट थोड़ा ज्यादा) था।
जारी....-

1 comment:

SP Dubey said...

चुल्लू भर पानी मे दूब मरो पत्रकार और पत्रकारिता और नही तो तलवे चटो प्रबन्धन के॥
बुरा लगे टिप्पणी तो लगती रहे लेकिन क्या लगेगा बुरा, मरा हुआ बारबार नही मरता है किसको पढ्ने के लिए छपरहे हो ?