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Sunday, March 16, 2008

तिब्बती विरोध के मायने

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तिब्बत में हिंसक प्रदर्शन के दौरान कई लोग मारे गए हैं। जिसकी घोर निंदा की जानी चाहिए। लेकिन यह जानना बहुत जरूरी है कि तिब्बत के इस विद्रोह का कोई राजनैतिक स्वरूप है या केवल यह एक धार्मिक विद्रोह है। क्योंकि जो समूह इस विद्रोह की वकालत कर रहा है उसका इतिहास राजनीतिक कम और धार्मिक ज्यादा है। इस बारे में कोई भी राय बनाने से पहले हमें चीन और तिब्बत के संबंधों को उनके अब तक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना जरूरी है। लेकिन यह सवाल हमेशा और हर देश के संदर्भ में उठना चाहिए क्या हमें धार्मिक विद्रोह के राजनीतिक इस्तेमाल को अपना समर्थन देना चाहिए या नहीं। प्रसून का कहना है कि चूंकि यह विद्रोह धार्मिक चरित्र लिए हुए हैं इसलिए इसके पीछे महज बौद्ध साधुओं की राजनीतिक इच्छा है लिहाजा उसे समर्थन बिल्कुल नहीं मिलना चाहिए।
-प्रसून
20वीं सदी के शुरुआत में ही तिब्बत ने खुद को चीन से स्वतंत्र घोषित कर दिया था। लेकिन 1950 तक पूर्वी तिब्बत पर चीन ने आक्रमण के जरिए अपने अधिकार का दावा करता रहा है। एक साल बाद चीन और तिब्बती भिक्षुओं ने ‘सत्रह सूत्रीय सहमति’ पर हस्ताक्षर किया। जिसके बाद तिब्बत को बौद्ध धर्म मानने की स्वतंत्रता और स्वायत्ता की गारंटी मिली। चीन ने इस भिक्षुओँ से नागरिक औऱ सैन्य मुख्यालयों की ल्हासा में स्थापना की गारंटी ले ली। हालांकि तिब्बतियों के एक समूह ने इसका विरोध जारी रखा। जिसके परिणाम स्वरूप 1959 में एक विद्रोह होता है जिसमें कई लोग मारे जाते हैं दलाई लामा तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेते हैं। पिछले दिनों की घटनाएं उस विद्रोह की वर्षगांठ के मौके पर भड़क उठी। वैसे तो चीनी सरकार ने 1965 में ही तिब्बत को स्वशाषित क्षेत्र घोषित कर दिया था फिर भी तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं का एक तबका यह आरोप लगाता रहा कि चीन ने अपने सात सूत्रीय सहमति को पूरा नहीं किया है। इस समूह ने वहां बार-बार विद्रोह को जन्म दिया। जिसमें सबसे भयानक विद्रोह 1988 में हुआ और हालत की गंभीरता को देखते हुए चीन सरकार ने तिब्बत की कमान कुच दिनों के लिए सैना के हवाले कर दी।
तिब्बत पर चीन के दावे का इतिहास को जानना जरूरी है। 1950 तक चेयरमैन माओ की सेना ने वास्तव में तिब्बत पर अधिकार नहीं किया था फिर भी चीन तिब्बत को 700 साल पुराने मंगोल शासन के समय से ही अपना हिस्सा मानता रहा। जो कि 18वीं और 19वीं शताब्दी में औपचारिक रूप से चीन संरक्षित राज्य का हिस्सा बन गया। तिब्बत की स्वायत्तता 1913 के एक पक्षीय स्वतंत्रता की घोषणा करने के बाद मिला।
चीन का तिब्बत पर शासन को लेकर पक्ष-विपक्ष में कई तर्क दिए जाते हैं। 1950 के चीनी सरकार के हस्तक्षेप के बाद वहां चीनी हान जनता को बडत़े पैमाने पर बसाने का काम किया गया। जिसके बाद 60 और 70 के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति तिब्बत में भी संपन्न हुई। भिक्षु वर्ग का आरोप है कि उस दौरान उनके धार्मिक मठों को तोड़ दिया गया। हालांकि 80के दशक में चीनी सरकार ने तिब्बत में “ओपेन डोर” सुधार कार्यक्रम लागू किया। जिसका उद्देश्य निवेश बढ़ाना था। तिब्बती भिक्षु इस कदम को भी चीनी सरकार की मजबूती से जोड़कर देखते रहे। पिछले दो सालों से चीन ने ल्हासा और चीनी शहर गोलमड के बीच रेल सेवा शुरू की है। जिसपर तिब्बत भिक्षुओं की कड़ी प्रतिक्रिया रही। और वे इसे भी चीनी सरकार की मजबूत पकड़ बनाने की नीति से जोड़कर देखते हैं। वे मानते हैं कि इससे हान जनता की संख्या तिब्बत में और बढ़ेगी।
इस पूरे मसले पर दलाई लामा की भूमिका दिलचस्प है। जिस साल चीन ने पूर्वी तिब्बत पर अधिकार किया उसी साल 15साल की उम्र में दलाई लामा राज्य के प्रमुख बनाए गए। एक साल के भीतर ही वे सत्रह सूत्रीय सहमति पर चीन सरकार के साथ बातचीत करने लगे। वे चार साल बाद तिब्बत में चीन के दखल को कम करने के लिए बीजिंग में चेयरमैन माओ के साथ दलाई लामा ने एक असफल बातचीत भी की। 1959 में इस बातचीत के बाद तिब्बत में एक बड़ा विद्रोह हुआ और दलाई लामा को भारत के धर्मशाला शहर में शरण लेनी पड़ी।
धर्मशाला से दलाई लामा ने लगातार तिब्बत की निर्वासित सरकार के जरिए शांति प्रयास चलाते रहे। इस काम के लिए उन्हे 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार भी दिया गया। यद्दपि की दलाई लामा की बातचीत का सिलसिला 1993 में रुक गया था लेकिन इसे 2002 में दोबारा शुरू किया गया। इस बातचीत पर दलाई लामा कहते हैं कि उन्होने तिब्बत के वास्तविक स्वतंत्रता का विचार तो त्याग दिया है लेकिन सांस्कृतिक स्वायत्तता दिए जाने की उम्मीद है। तो क्या यह माना जाय कि पिछले दो दिनों से शुरू हुआ हिंसक विद्रोह केवल सांस्कृतिक स्वायत्तता की मांग है।
दलाई लामा के पूरे उद्धरण से क्या यह नहीं लगता है कि तिब्बत की स्वतंत्रता कुछ धार्मिक समूहों के द्वारा उठाई जा रही है। अगर इसका कोई राजनैतिक नेतृत्व सामने आता है तो हमें जरूर समर्थन करना चाहिए। क्योंकि हम फिलिस्तीनी मुक्त संगठन का तो समर्थन कर सकते हैं लेकिन तालिबान का नहीं।

7 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

अच्छी जानकारी दी है। तिब्बत के इतिहास के बारे में बहुत लोग नहीं जानते

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप के दृष्टिकोण से सहमत हैं।

Anonymous said...

buddism and taalibaanism are not comparable, and it is the way of life in the most civilized, rationalized form, that human civilization has known. its also beyond the scope of your dirty politics and loyality to china

Anonymous said...

एक बार फिर सोच लीजिए. आपको नये तथ्य मिलेंगे. विचारधारा के नाम पर इंसानों के बीच भेद करना थोड़ी नादानी होती है.

मसिजीवी said...

माफ करें भयानक तौर पर लीनियर तार्किकता लिए है ये इतिहास, लगता है मानो चीनी दूतावास का कोई परचा पढ़ रहे हों- जिस स्‍वायत्‍तता के वायदे के पूरे हो जाने का दावा आप उनकी ओर से कर रहे हैं क्‍या उसमें तिब्‍बतियों की सांस्‍कृतिक स्‍वायत्‍तता शामिल थी कि नहीं-
सामरिक पक्ष व दमन का कोई उल्‍लेख नहीं।
क्‍या चीनी पक्ष का केवल अनुवाद भर ही किया जाना था या कोई संतुलन, विवेक भी अपेक्षित था।

स्वप्नदर्शी said...

चीन द्वारा तिब्बतियो का दमन, और उनकी अपने तरीके से जीने की इच्छा का दमन, हत्याये, एक पूरी सभ्यता का नाश, हज़ारो सालो की सांस्क्रितिक, और दुर्लभ रचनाओ का cultural revolution के नाम पर जला दिया जाना.

क्या चीन की विचारधारा, और आपकी पार्टीलाईन, इन्हे कैसे सही ठ्हरा सकती है?

और उस पर भी दलई लामा का अहिंसा का इतने सालो से आग्रह. शांतीपूर्ण तरीके से जीने की कोशिश,
कैसे आप लोग बुद्ध धर्म और तालिबान को समकक्ष रख सकते है?

और क्या हिन्दुस्तान की आज़ादी की लडाई मे धर्म का इस्तेमाल लोगों को एकजुट करने के लिये नही हुया? और क्य इसके बिना लोगों व्यापक भागीदारी सम्भव थी? क्या सिर्फ इसीलिये हमारी अपनी आज़ादी की लडाई, अनैतिक थी? सीन बदल दो, और कहो कि आज हिन्दुस्तान की लडाई का समय होता तो आप कहा खडे होते?

और फिलीस्तीन की आज की लडाई का सारा दारोमदार क्या हमास के कन्धे पर नही? क्या वहा उग्र इस्लाम का इस्तेमाल आज़ादी के लिये नही हो रहा है?

बहुत ही हास्यास्पद है कि आप लोग हिंसक हमास के पक्ष मे है और नीरीह, कम्जोर, भूख्मरी, गरीबी और लाचार, तिब्बतियो के खिलाफ है?

Arun Aditya said...

bauddh dharm ko bharat se bahar kisne aur kyon khadeda, is par bhi vichar hona chahiye.